पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 Das अध उपक्षेप । से साजते हैं । जब रंगभूमि में आकाशवाणी दैवीवाणी। अथवा और कोई मानुषीवाणी का प्रयोजन होता है तो अभिनयकार्य के प्रथम संक्षेप में समस्त नाटकीय वह नेपथ्य ही में से गाई या कही जाती है। विवरण कथन का नाम उपक्षेप है। अर्थ उद्देश्यबीज । पूर्वकाल में मुद्रायंत्र (१) की सृष्टि नहीं हुई थी, गुम्फित आख्यायिका के समन मर्म का नाम इस हेतु रंगस्थल में नट नटी सूत्रधार अथवा उद्वेश्यबीज है । कवि जो इस का साधन न कर सकेगा पारिपाश्विक कर्तृक उपक्षेप का उल्लेख होता था । तो उस का ग्रंथ नाटक में परिगणित न होगा। आज कल मुद्रायंत्र के प्रभाव से इस की कुछ अथ वस्तु । आवश्यकता नहीं रही प्रोग्राम बांट देने ही से वह काम नाटकीय इतिहास अथवा कोई विवरण विशेष का सिद्ध हो जायगा। नाम वस्तु है । वस्तु दो प्रकार की हैं यथा पूर्वकाल में नाटक मात्र में उपक्षेप उपन्यस्त होता आधिकारिक वस्तु और प्रासंगिक वस्तु । था यह नियम नहीं था क्योंकि सब नाटकों में उपक्षेप का उल्लेख दिखाई नहीं पड़ता । वेणीसंहार में आच प्रासंगिक वस्तु । इस का उल्लेख है किन्तु यह भीमकृत उपन्यस्त हुआ जो समस्त इतिवृत्त का प्रधान नायक होता है उस को अधिकारी कहते हैं । अधिकारी का आश्रय करके यथा भीम :- जो वस्तु विरोचित होती है उसका नाम आधिकारिक "लाक्षागृहानलविषान्नसभा प्रवेश : प्राणेषुवित्तनिचयेषु वस्तु है । जैसा उत्तरचरित । च न : प्रहत्य आकृष्य पाण्डववधूपरिधानकेशान् सुस्था अथ प्रासंगिक वस्तु । भवन्ति मयि जीवतिधार्तराष्ट्रा:?" इस आधिकारिक इतिवृत्त का रस पुष्ट करने के अथ प्ररोचना । लिये प्रसंगक्रम में जो वृत्त लिखा होता है, उस का नाम जिस के अनुष्ठान द्वारा अमिनयदर्शन में सामाजिक | प्रासंगिक वस्तु है । जैसा बालरामायण में सुप्रीव लोगों की प्रवृत्ति जन्मती है उस का नाम प्ररोचना है विभीषणादि का चरित्र । 1 यह सूत्रधार, नट, पारिपार्श्विक या नटी के नारा विगीत अथ मुख्य उद्देश्य । प्रसंग क्रम से नाटक में कितनी भी शाखा प्रशाखा अथ नेपथ्य। विस्तृत हो, और गांक के द्वारा आख्यायिका के रंगस्थल के पश्चात् भाग मा जो एक गुप्त स्थान अतिरिक्त और कोई विषय वर्णित हो किंतु मूल रहता है उस का नाम नेपथ्य है। प्रस्तावनिष्कम्प रहै तो उस की रसपुष्टि करने को अलकारयिता इसी स्थान में पात्रों के वेश भूषणादि | मुख्य उद्देश्य कहा जाता है । की आई थी। निस्सन्देह वह इस विद्या में बहुत प्रवीण । नृत और नत्य दोनों में अपूर्व काम करती थी। इस देश की नर्तकी तो केवल मुखावलोकन ही के योग्य होती है गुण तो उनके पास से भी नहीं निकलता परन्तु वह यथानाभ तथागुण :" को सत्य करती थीं । नृत्य और नृत्त में यह भेद है कि भवेद्भावानयनृत्त- नृत्यताललयाश्रयम्" जिस में भाव मुख्य हो वह नृत्त और जिसमें लय मुख्य हो वह नृत्य कहलाता है । भाव नेत्र भौंह मुख और हाथ स्वर से भी प्रकट होते हैं । लय भी हाथ पैर गले और भौंह से होती है । नृत्य के शास्त्रों में १०८ भेद लिखे हैं और लाग डांट उड़प तिरप हस्तक भेद इत्यादि इस के अंग हैं, जिसमें केवल धुंघरू बजाने के ७ मुख्य भेद है । लास्य और ताण्डव इस के दो मुख्य अंग हैं और यह नृत एक से लेकर बहुत से मनुष्यों से भी होता है । पुरुष और स्त्री दोनों इस के अधिकारी है परन्तु नृत्तभेद से किसी में केवल स्त्री और किसी में दोनों होते हैं। हम परम ईश्वर से प्रार्थना करते है कि वह विद्यासम्बन्धी संगीतशास्त्र हम लोगों में फैले और यह प्रचलित मूर्खतामय लज्जा का कारण विषयरूपी संगीत हमारे शत्रुओं को मिले । (१)) यद्यपि छापे की विद्य बहुत दिनों से भारतवर्ष में प्रचलित है इस में कुछ सन्देह नहीं, किन्तु आजकल जैसी इस की उन्नति है और इससे पत्र और पुस्तक आदि छप-२ के प्रकाशित होते हैं यह भी कभी यहा था कि नहीं सो कुछ निप्रचय नहीं है । श्री कृष्ण के समय जब राजा शल्य ने द्वारवतीपुरी को आक्रमण कियाए उस समय वहां यह बन्दोवस्त किया था कि "नचा मुद्रो भिनिर्याति नैवान्त : प्रविशेदप" महाभारतवनपर्व ; अर्थात बिना राजकीय नाम की मोहर छाप के कोई नगर से निकल नहीं सके और कोई भीतर ONE TO भारतेन्दु समग्र ५६२ होती है।