पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६०७

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अथ अभिनय । कालकृत अवस्था विशेष के अनुकरण का नाम अभिनय है। अवस्था यथा, रामाभिषेक, सीता निर्वासन, द्रोपदी का केशभाराकर्षण आदि । अथ पात्र। जो लोग राम युधिष्ठिरादि का रूप धारण करके, कथित अवस्था का अनुकरण करते हैं, उन लोगों को पात्र कहते हैं । नाटक के जो सब अंश स्त्रीगणकर्तक प्रदर्शित होते हैं, उन में भाव, हाव, हेला प्रभृति यौवन सम्भूत अष्टाविंशति प्रकार के अलंकार उन लोगों को अभ्यास नहीं करने पड़ते किंतु पुरुष लोगों को स्त्री वेश धारण के समय अभ्यास द्वारा वह भाव दिखलाना पड़ता अथ याचिकाभिनय । केवल वाक्यविन्यास द्वारा जो अभिनय कार्य समाहित होता है, उस का नाम वाचिकाभिनय है। यथा तोतले आदि का वेश । अथ आहार्यामिनय । वेष भूषणादि निष्पाद्य का नाम आहार्याभिनय है । जैसा सत्यहरिश्चन्द्र में चोबदार का मुसाहिब ये लोग जब राजा के साथ रंगस्थल में प्रवेश करते हैं तो इन को कुछ बात नहीं करनी पड़ती । केवल आहार्याभिनय के द्वारा आत्मकार्य निष्पन्न करना होता है। अथ सात्यिकाभिनय । स्तम्भ स्वेद रोमांच कम्प और अनु प्रभृति बारा अवस्थानुकरण का नाम सात्विकाभिनय है । जैसा सती को मृत देखकर नन्दी का व्यवहार और अनुपात इत्यादि । अथ बीभत्साभिनय । एक पात्र द्वारा जब कथित अभिनय में से दो वा तीन अथवा सब प्रदर्शित होते हैं तो उस को बीभत्साभिनय कहते हैं। अथ अंगांगी भेद । नाटक में जो प्रधान नायक होता है उस को समस्त इतिवृत्त का अंगी कहते हैं । जैसे सत्यहरिश्चन्द्र में हरिश्चन्द्र । अध अंग। अंगी के कार्यसाधक पात्रगण अंग कहलाते हैं। अथ अभिनय प्रकार। अभिनय चार प्रकार का होता है। -यथा आंगिकाभिनय, वाचिकाभिनय, आहार्याभिनय और सात्विकाभिनय। अथ आगिकाभिनय । केवल अंगभंगी द्वारा जो अभिनयकार्य साधन करते है, उस का नाम आंगिकाभिनय है । जैसे सती नाटक में नन्दी । सती ने शिव की निन्दा श्रवण कर के देह त्याग किया । यह सुन कर महावीर नन्दी ने जब त्रिशूल हस्त में लेकर के रंगस्थल में प्रवेश किया तब केवल आंगिकभाव द्वारा क्रोध दिखलाना चाहिये। भी न आवे, यहां स्पष्ट ही देख लीजिये कि छापे की मुद्रा से, एक जगह के अक्षर दूसरी जगह उतारे जाते थे । मुद्राराक्षस नाटक, जो राजा चन्द्रगुप्त के समसामयिक वा कुछ उत्तरवर्ती काल में बना है, यहां भी राक्षस नामांकित मुद्रा प्रसिद्ध ही है । इस प्रकार यद्यपि मुद्रण विधि का मूल तो आर्य्यशास्त्रों में प्राय : मिलता है, किन्तु इस की उन्नति कर के देशान्तरीय लोगों ने जैसा इस से लाभ उठाया है वैसा भारतीय आर्या लोगों ने कुछ भी नहीं किया, यह सभी कोई कह सकते हैं; अतएव यह मुद्रण विद्या देशान्नर ही से चली और अनार्य्य लोग ही इस के आद्य आचार्य हुए, यह बात हम को भी खुले मुह कहनी पड़ती है। छापा यन्त्र बनाने के निमित्त अनेक लोग ही सम्मान प्राप्त होने के योग्य हैं, किन्तु वास्तव में इंग्लैण्ड देश के हार्लेम नगर में यह यन्त्र पहले ही पहले निर्मित हुआ, यह प्राय : सभी स्वीकार करते है । उक्त नगर के शासन कर्ता लोरेंस कोम्भर साहिब के शक १४४० चौदह सौ चालीस में इसका निर्माण किया और आद्या प्रादुर्भाव के निमित्त, सब के प्रथम वही सम्माननीय हुआ । वह एक दिन अपने समीपस्थ किसी बगीचे में जाके एक वृक्ष की गीली त्वचा काट के, उस से अपने नाम के अक्षर बना-२ एक क्रीड़ा सी कर रहा था । वे ही अक्षर काट काट के जब उस ने एक किसी कागज के ऊपर रख दिये थे, उसी समय एक वायु का झोका आया और वे अक्षर जो उस वृक्ष के रस से गीले हो रहे थे, उनकी समस्त और वे अक्षर जो उस वृक्ष के रस से गीले हो रहे थे, उनकी समस्त आकृति वायुवेग से हठात् उस कागर जर उखड़ आयी । साहिब ने जब उक्त घटना देखी तो पीछे अपनी विवेचना द्वारा वह और-२ भी अनेक प्रकार की परीक्षा करने लगा, फिर उस के काष्ट के अक्षर बना नाटक ५६३