पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६०९

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De B निर्वाचन करके भी स्वाभाविक सामग्री परिपोष के प्रशंसा का विषय है। जो इस भांति दूसरे का प्रति दृष्टिपात नहीं करते उन का नाटक नाटकादि दृश्य अन्तरभाव व्यक्त करने को समर्थ हैं, उन्हीं को काव्य लिखने का प्रयास व्यर्थ है क्योंकि नाटक नाटककार सम्बोधन दिया जा सकता है और उन्हीं के आख्यायिका की भांति श्रव्य काव्य नहीं है। प्रणीत ग्रन्थ नाटक में परिगणित होते हैं। ग्रंथकर्ता ऐसी चातुरी और नैपुण्य से पानगण की नाटक में अन्तर का भाव कैसे चित्रित किया जाता बातचीत रचना करै कि जिस पात्र का जो स्वभाव हो | है इस का एक अति आश्चर्य दृष्टांत अभिज्ञान वैसी ही उस की बात भी विरचित हो । नाटक में शाकुन्तल (१ ) से उद्धृत किया गया । वाचाल पात्र की मितभाषिता, मितभाषी की वाचालता, शकुन्तला श्वशुरालय में गमन करेगी इस पर मूर्ख की वाक्पटुता और पण्डित का मौनीभाव भगवान कण्व जिस भांति खेदप्रकाश करते हैं वह यह बिडम्बनामात्र है । पात्र की बात सुनकर उसके स्वभाव का परिचय ही नाटक का प्रधान अंग है। नाटक में "सर्व्वयज्ञ कृत' इत्यादि नाम प्रसिद्ध है, 'तं यज्ञ वाक्प्रपंच एक प्रधान दोष है । रसविशेष द्वारा दर्शक बर्हिषिप्रौक्ष पुरुष' इत्यादि की दो तीन ऋचा में लोगों के अन्त :करण को उन्नत अथवा एक बारगी | यज्ञोत्पत्ति कही है। शोकावनत करने को समधिक वागाडंबर करने से भी 'ये द्वे कालविधत्त:' अर्थात् चन्द्रमा और सूर्य उद्देश्य सिद्ध नहीं होता । नाटक में वाचालता की अपेक्षा | सूर्यशशाकंवहियनं' जिस की दो नेत्र स्वरूप मूर्तियां मितभाषिता के साथ वाग्मिता का ही सम्यक् आदर | काल का विधान करती हैं और शिव के निमिष में होता है । नाटक में प्रपंच रूप से किसी भाव को प्रलयादिक होते हैं यह भी पुराण प्रसिद्ध वा सूर्य्य नेत्र व्यक्त करने का नाम गौण उपाय है और कौशलविशेष चन्द्रमा सिर पर वा मन स्वरूप 'चन्द्रमा मन सो द्वारा थोड़ी बात में गुरुतर भाव व्यक्त करने का नाम जातश्चक्षोस्सूर्यो अजायत । मुख्योपाय है थोड़ी सी बात में अधिक भाव की 'अतिविषयगुणा या स्थिताव्याप्य विश्व' अर्थात् अवतारणा ही नाटक जीवन का महौषध है । जैसा | वाणीस्वरूपी मूर्ति, जिस की वाणी वेद स्वरूप विश्व उत्तररामचरित में महात्मा जनकजी आकर पूछते हैं | को अपने नियम में व्याप्त कर के स्थित है क्योंकि 'क्वास्ते प्रजवत्सलो राम :' यहां प्रजावत्सल शब्द से शिवजी वाणी के अधिदेवता 'वागीश:' अहं कलाना महाराज जनक के हृदय के कितने विकार बोध होते | ऋषभोपि' विद्याकामस्तु गिरिशं' 'वाणी व्याकरण है। केवल सहृदय ही इस का अनुभव करेंगे। यस्य' इत्यादि पुराण में प्रसिद्ध हैं था वेदों की विषय हो चित्रकार्य के निमित्त जो जो उपकरण का प्रयोजन और कर जो मूर्ति एक देशावच्छिन्ना होकर भी विश्व को स्थान विशेष की उच्च नीचता दिखलाने को जैसी व्याप्त कर के स्थित है 'सभूमि सर्वतो वृत्वा आवश्यकता होती है वैसे ही वही उपकरण और उच्च अत्यतिष्ठदशांगलम' वा नोचता प्रदानपूर्वक अति सुन्दर रूप से मनुष्य के बाह्य नाभि अंग का वर्णन किया है यस्य नाभिवै आकाश : भाव और कार्यप्रणाली के चित्रकरण द्वारा सहज भाव से 'नाभ्या असीदतरिक्ष इत्यादि । उसका मानसिक भाव और कार्य प्रणाली दिखलाना 'यामाहु : सर्वबीजप्रकृतिरिति अर्थात् पृथ्वी, सो ( १) इस प्रसिद्ध नाटक के मंगलाचरण का श्लोक 'यास्रष्टु सृष्टिराधा वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री ये द्वे काल विधत्त : श्रुतिविषयगुण या स्मिता व्याप्यविश्वम् । या 'माहुस्सर्ववीजप्रकृतिरिति यथा प्राणिन : प्राणवन्त : प्रत्यक्षाभि : प्रसन्न स्तनुभिरवतु वस्ताभिष्टाभिरीश :' बहुत प्रसिद्ध है और सब टीकाकारों ने इस के अनेक अर्थ किये हैं तथापि मुझे ऐसा निश्चित होता है कि कालिदास ने क्षिति इत्यादि शब्दों में श्रीशिवजी का विराट स्वरूप वर्णन नहीं किया है क्योंकि उन मूर्तियों का प्रत्यक्षामि:' यह विशेषण दिया है और लोग "यस्रष्टु : सृष्टिराध" इस का अर्थ आकाश करते है तो आकाश क्या अक्षि का विषय है ? इस से मेरे ध्यान में आता है कि शिवजी की जो प्रत्यक्ष परम सुन्दरी मूर्ति है वह उसकी का वर्णन है। जैसे :- 'यास्रष्टु सृष्टिराद्या' अर्थात जल 'शीर्षे च मन्दाकिनी' जि मूर्ति में 'जल सब के ऊपर है।' वहतिविधिहुतयाहवि:'. अर्थात् अग्नि, 'वन्देसूर्यशशंकवह्निनयनं. जिस मूर्ति का एक मुख्य अंग अर्थात नेत्र अग्नि है वा मुख वर्णन किया 'गुखो3 अग्नि : 'मुखादग्नि :' । 'या चा होत्री' अर्थात यजमान स्वरूप जो मूर्ति कर्ममार्ग स्थापन करने वाली है, नाटक ५६५