पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६१०

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पृथ्वी आप ने भस्म स्वरूप से साग में धारण किया है 'भस्मोद्धूलित सर्वाग : भस्मोद्धूलित विग्रह :' इत्यादि वा पृथ्वी गंगा शिर नेत्र मुख नाभि इत्यादि अंगों का वर्णन कर के चरण का वर्णन करते हैं जिसके चरण पृथ्वी स्वरूप है 'चरणे धरा पद्माम्भूमि:' इत्यादि । 'यथा प्राणिन : प्राणवन्त:' अर्थात् आत्मा, तो इस में मूर्ति ही में आत्मा का वर्णन इस हेतु किया जिस में भगवान के देह में आत्मा है अलग यह सन्देह न हो क्योंकि 'यथा सैन्धवचनो' इत्यादि परमात्मा का स्वरूप है तो सब मूर्तियों का वर्णन कर के व्यापकत्व और आत्मस्वरूपत्य कहा वा कानों का वर्णन मानों 'प्रोवाद्वायुश्चप्राणश्च' वा आप प्राणायामस्थ हैं यह ध्यान किया है। तो इन आठों मूर्तियों से विशिष्ट प्रत्यक्ष शिवजी का वर्णन कालिदास ने किया, कुछ संसार स्वरूप भगवान का वर्णन नहीं है क्योंकि अन्त में भी कण्व -(मन में चिन्ता करके) आहा आज शकुन्तला पतिगृह में जायगी यह सोचकर हमारा हृदय कैसा उत्कण्ठित होता है, अन्तर में जो वाष्पभर कर उच्छवास हुआ है उससे वाग्जड़ता हो गई है, और दृष्टिशक्ति चिन्ता से जड़ीभूत हो रही हैं। हाय ! हम वनवासी तपस्वी हैं सो जब हमारे हृदय में ऐसा वैक्लव्य होता है तो कन्या के वियोग के अभिनव दु:ख में बिचारे गृहस्थों की क्या दशा होती होगी। सहृदय पाठक! आप विवेचना कर के देखिये कि इस स्थान में कविश्रेष्ठ कालिदास कुलपति कण्व ऋषि का रुपधारण कर के ठीक उनका मानसिक भाव व्यक्त कर सके हैं कि नहीं? इस के बदले कालिदास यदि कण्व ऋषि का छाती पीटकर रोना वर्णन करते तो उन के ऋषि जनोचित धैर्य की क्या दुर्दशा होती अथवा कण्व का शकुन्तला के जाने पर शोक ही न वर्णन करते तो कण्व का स्वभाव मनुष्य स्वभाव से कितना दूर जा पड़ता। इसी हेतु कविकुलमुकुटमाणिक्य भगवान कालिदास ने ऋषि जनोचित भाव ही में कण्व का शोक वर्णन किया । नाटक रचना में शैथिल्य दोष कभी न होना चाहिये । नायक नायिका द्वारा किसी कार्य विशेष की अवतारणा कर के अपरिसमाप्त रखना अथवा अन्य व्यापार की अवतारणा कर के उस का मूलच्छेद करना नाटक रचना का उद्देश्य नहीं है । जिस नाटक की उत्तरोत्तर कार्यप्रणाली सन्दर्शन कर के दर्शक लोग पूर्वकार्य विस्मृत होते जाते हैं वह नाटक कभी प्रशंसा भाजन नहीं हो सकता । जिन लोगों ने केवल उत्तम वस्तु चुन कर एकत्र किया है उन की गुम्फित वस्तु की अपेक्षा जो उत्कृष्ट मध्यम और अधम तीनों का यथा स्थान निर्वाचन कर के प्रकृति की भाव भंगी उत्तम रूप से चित्रित करने में समर्थ है वही काव्यामोदी रसज्ञ मण्डली अपूर्व आनन्द वितरण कर सकते हैं। कालिदास भवभूति और शेक्सपियर प्रभृति नाटककार इसी हेतु पृथ्वी में अमर हो रहे हैं । कोई सामग्री संग्रह नहीं है, अथवा नाटक लिखना होगा यह अलीक संकल्प करके जो लोग नाटक लिखने को लेखनी धारण करते हैं उनका परिश्रम व्यर्थ हो जाता है। यदि किसी को नाटक लिखने की वासना हो तो नाटक किस को कहते हैं इस का तात्पर्य हृदयंगम कर के, नाटकरचयिता को सूक्ष्मरूप से ओतप्रोत भाव में मनुष्य प्रकृति की आलोचना करनी चाहिये । जो अनालोचित मानव प्रकृति हैं उनके द्वारा मानवजाति के अन्तर्भाव सब विशुद्धरूप से चित्रित होंगे, यह कभी सम्भव नहीं है इसी कारण से कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तल और शेक्सपियर मैकबेथ और हैमलेट इतने विख्यात हो के पृथ्वी के सर्व स्थान में एकादर से परिभ्रमण करते हैं। मानवप्रकृति की समालोचना करनी हो तो नाना प्रकार के लोगों के साथ कुछ दिन वास करै । तथा नाना प्रकार के समाज में गमन करके विविध लोगों का आलाप सुनै तथा नाना प्रकार के ग्रंथ अध्ययन करे, वरंच समय में अश्वरक्षक, गोरक्षक, दास, दासी. ग्रामीण, दस्यु प्रभृति नीच पृकृति और सामान्य लोगों के साथ कथोपकथन करै । यह न करने से मानवप्रकृति समालोचित नहीं होती । मनुष्य लोगों की मानसिक वृत्ति परस्पर जिस प्रकार अदृश्य है उन लोगों के हृदयस्थभाव भी उसी रूप अप्रत्यक्ष हैं । केवल बुद्धि वृत्ति की परिचालना द्वारा तथा जगत के कतिपय बाह्य कार्य पर सूक्ष्म दृष्टि 'अभिवाद्योमहाकम्गतिपस्वीभूतभावत :' 'स्वकर्मा' 'नीललोहित : विशेषण दिया है और यो मानने से क्रम से शिर पर गंगा फिर मुख और उन के यज्ञादिक कर्म और चन्द्रचूड़ तथाच नेत्र फिर वाणी का वा नाभि का और भस्मधारण का तथा चरण का और फेर मुख स्वरूप आत्मा का क्रमश : वर्णन हो गया तो मेरी बुद्धि में आता है। कालिबस का अभिप्राय भी यही होगा क्योंकि 'प्रत्यक्षामि :' का दोष और नाटकं के उपसंहार में सगुण शिव नीललोहित कर के वर्णन इत्यादि का इस अर्थ में विरोध नहीं आता ।। 44

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भारतेन्दु समग्र ५६६