पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६१२

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करते । अर्थात् नाटक पढ़ने या देखने से कोई शिक्षा | भी न दिखलावै । मिले जैसे सत्यहरिश्चन्द्र देखने से आर्यजाति की पात्रों का परस्पर कथोपकथन -- पात्रगण आपस

  • सत्यतिज्ञा, नीलदेवी से देशस्नेह इत्यादि शिक्षा में वात् जो करें उन को कवि निरे काव्य की भांति न

निकलती है । इस मर्यादा की रक्षा के हेतु वर्तमान | ग्रथित करै । यथा नायिका से नायक साधारण काव्य समय में स्वकीया नायिका तथा उत्तम गुण विशिष्ट | की भांति 'तुम्हारे नेत्र कमल हैं, कुच कलश हैं' नायक को अवलम्बन कर के नाटक लिखना योग्य है। | इत्यादि न कहें । परस्पर वार्ता में हृदय के भावबोधक यदि इसके विरुद्ध नायिका नायक के चरित्र हों तो वाक्य ही करने योग्य है । किसी मनुष्य वा स्थानादि के उसका परिणाम बुरा दिखलाना चाहिए । यथा नहुष वर्णन में लम्बी चौड़ी काव्यरचना नाटक के उपयोगी नाटक में इन्द्राणी पर आसक्त होने से नहुष का नाश | नहीं होती। दिखलाया गया है। अर्थात चाहे उत्तम नायिका गायक अथ नाटकों का इतिहास । के चरित्र की समाप्ति सुखमय दिखलाई जाय किंबा यदि कोई हम से यह प्रश्न करे कि सब के पहिले दुश्चरित्र पात्रों' के चरित्र की समाप्ति कंटकमय | किस देश में नाटकों का प्रचार हुआ तो हम क्षण मात्र दिखलाई जाय । नाटक के परिणाम से दर्शक और का भी बिलम्ब किये बिना मुक्त कंठ से कह देंगे पाठक कोई उत्तम शिक्षा अवश्य पावै । भारतवर्ष में । इसका प्रमाण यह है कि जिस देश में अथ अभिनय विषयक अन्यान्य स्फुट नियम । संगीत और साहित्य प्रथम परिपक्व हुए होंगे वहीं प्रथम नाटक की कथा --नाटक की कथा की रचना ऐसी नाटक का भी प्रचार हुआ होगा । हम नहीं समझ विचित्र और पूर्वापर बद्ध होनी चाहिए कि जब तक सकते कि पृथ्वी की और कोई जाति भी भारतवर्ष के अन्तिम अंक न पढ़े किम्बा न देखे यह न प्रकट हो कि सामने इस विषय में मुंह खोले । आर्यों का परम शास्त्र खेल कैसे समाप्त होगा । यह नहीं कि 'सीधा एक को वेद संगीत और साहित्यमय है । और जाति में संगीत बेटा हुआ उस ने यह किया वह किया' प्रारम्भ ही में और साहित्य प्रमोद के हेतु होते हैं किन्तु हमारे पूज्य कहानी का मध्य बोध हो । आर्य महर्षियों ने इन्हीं शास्त्रों द्वारा आनन्द में निमग्न पात्रों के स्वर - शोक हर्ष हास क्रोधादि के समय होकर परमेश्वर की उपासना की है। यहाँ तक कि में पात्रों को स्वर भी घटाना बढ़ाना उचित है । जैसे | हमारे तीसरे वेद साम की संज्ञा ही गान है । और किस स्वाभाविक स्वर बदलते हैं वैसे ही कृत्रिम भी बदलें। के यहाँ धर्म संगीत साहित्य-मय है ? हमारे यहां लिखा 'आप ही आप ऐसे स्वर में कहना चाहिए कि बोध हो | है। कि धीरे-धीरे कहता है किन्तु तब भी इतना उच्च हो वीणावादनतत्वज्ञ : श्रुतिजातिविशारदः । कि प्रोतागण निष्कंटक सुन लें । तालजश्चाप्रयासेन मोक्षमार्ग प्रयच्छति ।।१।। पात्रों की दृष्टि यद्यपि परस्पर वार्ता करने में काव्यालापश्च येकेचित गीतिकान्यखिलानिच । पात्रों को दर्शकों की ओर देखकर कहने पड़ेंगे। इस शब्दरूपधरस्यैते विष्णोरंशा महात्मन : ।।२।। पात्रों को दर्शकों की ओर देखकर कहने पडेंगे । इस तो जब हमारे धर्म के मूल ही में संगीत और अवसर पर अभिनयचातुर्य यह है कि यद्यपि पात्र साहित्य मिले हैं तब इस में क्या सन्देह है कि इस रस दर्शको की ओर देखें किन्तु यह न बोध हो कि वह बातें | के प्रथमाधिकारी आर्यगण ही हैं । इस के अतिरिक्त वे दर्शकों से कहते हैं। नाटकरचना में रंग नट इत्यादि गो शब्द प्रयुक्त्त होते हैं पात्रों के भाव - नृत्य की भांति 'रंगस्थल पर वे सब प्राचीन काव्य, कोष, व्याकरण और धर्मशास्त्रों पात्रों को हस्तक भाव वा मुख नेत्र भू के सूक्ष्मतर भाव में पाए जाते हैं। इस से स्पष्ट सिद्ध होता है कि दिखलाने की आवश्यकता नहीं स्वर भाव और नाटकरचना हमारे आर्यगणों पर पूर्वकाल ही से विदित यथायोग्य स्थान पर अंगभंगी भाव ही दिखलाने है। चाहिए। सर्वदा नट लोगों के ही द्वारा ये नाटक नहीं अभिनीत पात्रों का का फिरना – एक यह साधारण नियम होते थे । आर्य राजकुमार और कुमारीगण भी इस को भी माननीय है कि फिरने वा जाने के समय जहां तक हो| सीखते थे । महाभारत के खिल हरिवंश पर्व के विष्णु 'सकै पात्रगण अपनी पीठ दर्शकों को बहुत कम पर्व के ९३ अध्याय में प्रद्युम्न साम्बादि यादव दिखलाबैं । किन्तु इस नियम पालन का इतना आग्रह | राजकुमारों का वज्रनाभ के पुर में जाना और वहां नट, न करें कि जहाँ पीठ दिखलाने की आवश्यकता हो वहां बन कर (कौबेरम्भाभिसार) नाटक खेलना बहुत स्पष्ट

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भारतेन्दु समग्र ५६८