पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रूप से वर्णित है । वहा लिखा है कि जब प्रद्युम्न | बड़े सुन्दर स्वर से गान किया (३) पीछे गंगा जी के आदिक वीर वज्रनाभ के पुर में गये तो भगवान वर्णन में प्रद्युम्न गद और साम्ब ने मिलकर नान्दी गायी श्रीकृष्णचन्द्र ने कुमारों को नाटक करने की आज्ञा देकर (४) और तदनन्तर प्रद्युम्न जी ने विनय के श्लोक भेजा था । प्रद्युम्न सुत्रधार थे साम्ब विदूषक थे और गद पढ़कर सभा को प्रसन्न किया ।(4) और तब नाटक पारिपाश्विक थे । यहां तक कि स्त्रियाँ भी गाने बजाने आरम्भ हुआ । इस में शूर नामक यादव रावण बना, का साज ले कर साथ गई थीं । पहले दिन इन लोगों ने | मनोवती नाम्नी स्त्री रम्भा (६) प्रद्युम्न नल कूबर और रामजन्म नाटक किया जिस में लोमपाद राजा की आज्ञा साम्ब विदूषक । इसी प्रकरण से यह बात सिद्ध होती है से गणिका लोगों का श्रृंगी ऋषि को ठग कर लाना बहुत कि केवल नट ही नहीं, प्राचीन काल से आर्यकुल में अच्छी रीति से दिखलाया गया था । दूसरे दिन फिर | बड़े-२ लोग भी इस विद्या को भली भाँति जानते थे रम्भाभिसार नाटक किया (१) इसमें पहिले इन (१९) । लोगों ने नेपथ्य बांधा (२) फिर स्त्रियों से भीतर से मध्य समय के नाटक (१) 'भैमापि बद्धनेपथ्या नटवेषधरास्तथा । कायार्थ भी कर्माणो नृत्यार्थ मुपचक्रमुः ।। इत्यादि २१ श्लोक से ३२ श्लोक तक । (२) अर्थात् बिना नेपथ्य के महाराष्ट्रों की भांति शतरंजी और मशालची के भरोसे नाटक नहीं खेला । (३) इस से विदित हुआ कि बायपटी उठने के पहले गान होना भी प्राचीन रीति है। () नांदी विषयक दृढ़ नियम उसी काल से प्रचलित है। (५) विनय के श्लोक पढ़े अर्थात् प्रस्तावना हुई । (६) इस से एक बात बहुत बड़ी प्रमाण हुई कि प्राचीन काल में स्त्री का वेष स्त्री लेती थी । (७) अब के लोगों को नाटक के अनुशीलन वा अनुकरण करने में उत्साह नहीं होता वरन इसके तुच्छ और बुरा समझ के इस से दूर भागते हैं और नाटक करने वाले चतुरों को लोग साधारण ढोल बजाने वाले नट जान कर इस काम में अपनी घृणा प्रकाश करते है, परन्तु बड़े शोच की बात है कि जो सब से अच्छी वस्तु है और जिसके करने वाले लोग महा सभ्यता के निकेतन हैं इन्हीं दोनों बातों में देश के कुसंस्कार से लोगों को अरुचि हो गई । नाटकों का अभिनय करना सहृदय जनों के समाज को कितनी प्रीति देनेघाला. देश की कुचालों को सुधाने वाला और कैसा कुशल करने वाला है इसका सब गुण उन नाटकों को देखने ही से उन पर प्रगट हो जायगा और इसी भांति प्रतिकूलता के बन्धन से छूट कर अनुकूलता भूषण से भूषित होकर नाटक दर्शन रूपी अलौकिक कुसुम कानन में घूमने फिरने से अनिर्वचनीय आनन्द पावैगे और उस के काव्यों के वायु के ठंडे और सुगन्धित फकोरों से उन के जी की कली खिल जायगी । नाटकों के अभिनय करने में जो स्वच्छंदता होती है उसे छोड़ कर उस से देश का कितना उपकार होता है कि हम लिख नहीं सकते देखिये कि यदि एक बड़ा राजा वा कोई धनी अथवा कोई पण्डित किसी बुरे काम में प्रवृत्त होय तो उसको हम लोग सभा में कभी शिक्षा न दे सकेंगे और जो कुसंस्कार की दावाग्नि बडुत काल से प्रगट हो कर हम लोगों के मंगलमय सभ्यता वन को जला रही है उस महा दावाग्नि को हम लोग दोषकयन वारि से घर बैठे बुझाना चाहेंगे तो कभी न बुझेगी इस में अब हम लोगों को कुशलता के उद्योग वीजों को अवश्य बोना चाहिये और वह किसी एक मनुष्य के प्रयत्न से कमी अंकुरित न होगी परन्तु यदि नाटकों के अभिनव का आरम्भ हो जायगा तो यह सब कुचाल आप से आप छूट जायगी और उसी भाति फिर सब लोग अच्छी बातों से रुष्ट न होकर प्रचार में प्रयत्न करेंगे। जैसे वेश्या सक्त पुरुषों का रूप धारण करने वाले नटों से वेश्या सक्त पुरुषों को घृणा होगी और कुलटात्व दोष निवारण के हेतु कुलटा वेषधारी नट के आने से उसका दुर्दशा का दिखाना, मद्यपों के वेष से मद्यपों की बुरी अवस्था का अनुभव कराना इसी भांति जुवारी झूठ बोलने वाले ऋणी, अपने बन्धुओं से विरोध करनेवाले, वृथा आचरण करने वाले, वृथा व्यय करनेवाले कर्कश बोलनेवाले, और भूखों के वेष और सम्भाषण से इन की दुर्दशा दिखाने से अनायास ही पूर्वोक्त दुर्दशावाले मनुश्य सभा में बातों ही के चोअ से चैतन्य हो जाएंगे और इस रस रूपी उपदेश से सावधान हो कर बुरी बातों से ब्वैगे । और जो नाटक करना कोई बुरी बात होती तो सभ्य शिरोमणि विद्यासागर अंगरेज लोग इसके होने में क्यों प्रयत्न करते और बड़ी-२ रंगशालाओं में नित्य नित्य बड़े बड़े अधिकारी लोग क्यों वेष धारण करके नाटकाभिनव करते ? जो कहो कि यह नाटक नाटक ५६९