पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६१५

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है । इस में *ऐसा चिन्ह जिन पर दिया है वे नाटक अथ संस्कृत नाटकतालिका मेरे पढ़े हुए हैं और छपे भी हैं और जिन शाकुन्तल, (कालिदास) पर x ऐसा चिन्ह है वे मेरे पढ़े तो हैं किन्तु छपे नहीं मालविकाग्निमित्र, है और शेष भारतवर्ष में मिलते तो हैं किन्तु मेरे देखे विक्रमोर्वशी,* हुए नहीं हैं । इन्हीं नाटकों में कोई कोई ऐसे भी होंगे | मालतीमाधव, (भवभूति) जो मृच्छकटिक के पूर्व के बने होंगे किन्तु अब इस बात प्रियदर्शिका, (श्रीहर्ष) का पता नहीं लग सकता है यह सारी सृष्टि दो हजार वर्ष | धूर्तसमागम (राजशेखर) की है । जिस काल के अनन्त उदर में हम आर्यों के कर्पूरमञ्जरी-x अनन्त ग्रन्धरत्न गल पच गए वहां इस के पूर्व के विद्धशालभंजिका, नाटक भी गए । कालिदास भवभूति प्रभृति महाकवियों प्रचण्डपाण्डव (चन्द्रशेखर) जामदग्न्यजय के जीवनचरित स्वतन्त्र आलोच्य विषय है इस हेतु यहां बालरामायण नहीं लिखे गए। प्रसन्नराघव (जयदेव अपने इतिहास तिमिरनाशक तीसरे खंड में यो लिखा है :- यहां तक कि सन् ईसवी में ५७ बरस पहले विक्रम उज्जैन के शैव राजा ने दिल्ली फतह करके अपना अमल कश्मीर तक पहुंचाया ओर बौद्धमत को बड़ा धक्का लगाया । ब्राहमणों ने फिर बल पाया । इस ने पण्डितों का नवरत्न बनाया । कालिदास सब का शिरोमणि था । उसी के समय में कुमारसंभव ग्रन्थ बना । मृच्छकटिक नाटक भी सन् ईस्वी के आरम्भ ही में रखा गया । उससे उस समय का हाल बहुत मालूम होता है। उस में वसंत* नाम एक वेश्या के मकान की तारीफ लिखी है । चौकठ रंगी हुई झाडू दी हुई, पानी छिड़का हुआ. बंदनवार बंधी हुई, बालाखाना बलंद, पीले झंडे, गमलों में आम के पौधे, पहले चौक में वेदपाठी ब्राहमणों की तरह दर्बान ऊंघते, कब्वे दही भात खाकर यज्ञ के बचे हुए खाने से बेपर्वा, दूसरे चौक में अस्तबल, उस में रथ के बैल, लड़ाई के मेढ़े और बन्दर, बंधे हुए हाथी भात और घी के गोले खाते हुए, तीसरे चौक में जवान जूआ खेलते हुए. चौथे चौक में नाच गाना नाटक बाजा, पांचवें चौक में रसोई, तेल और हींग की बू से महकी हुई जानवरों की खाले धोई जाती हैं । मिठाई और पकवान बन रहे हैं । छठे चौक में दर्वाजा मिहराबदार ; जौहरी सुनार पटवे गहने बना रहे हैं । हक्काक अपना काम कर रहे हैं कोई केसर के थैले सुखला रहा है और कोई मुश्कनाफे हिलाता है, कोई चन्दन का इतर निकाल रहा है, कोई और और खुशबू की चीजें बना रहा है । सातवें चौक में चिडियाखाना कबूतर तोते मैना कोयल मौजूद, आठवें चौक में उस वेश्या का भाई रेशमी कपड़े पहने गहनों से चमचमाता हुआ लोट पोट कर रहा है मानों उस के हड्डी के जोड़ ही उखड़ गये हैं और उस की मा जामदानी का कपड़ा पहने तेल से चमकते हुए पैरों में जूती ऐसी मोटी कि शायद वहां उसे बैठा कर उस मकाना की दीवार बनायी गयी थी । बाग में बसन्त टहल रही थी उस की सवारी के रथ पर पदै पड़े हुए थे चारुदत ब्राह्मण इस वेश्या का यार था चोरी करना भी विद्या में गिना जाता था ! एक ब्राहमण चोर दीवार में जनेऊ से नाप कर शास्त्र के बमुजिब स्वस्तिक और घड़े की शकल पर सेंध लगा रहा है । राजा वेश्या के पीछे बाजार में दौड़ता है, उसे घायल करता है । एक बौद्ध भिक्षुक बचाता है । आर्यक अहीर जिस की आखें तांबे के रंग की लिखी हैं राजा को मार कर उज्जैन की गद्दी पर आप बैठता है । जो हो इस में संदेह नहीं कि विक्रम के समय में (शक लोग नाग की पूजा करते थे और नाग ही उन की चिन्ह था कौन जाने यही यहां नागवंशियों की जड़ हुए हों रामगढ़ सिरगुजा के नागबंशी राजा अब तक अपनी मुहर में नाग का चिन्ह था कौन जाने यही यहा नागवंशियों की जड़ हुए हों रामगढ़ सिरगुजा के नागवंशी राजा अब तक अपनी मुहर में नाग का चिन्ह खुदवाते हैं यूनान का पुराना इतिहासवेत्ता हेरोदोतस लिखता है कि शक लोग अपने तई एक एक ऐसी स्त्री की औलाद बतलाते थे जिस का नीचे का धढ़ सांप का था इसी से शायद इस देश वालों को नागकन्या का खयाल बधा) हूण जट (Jits, Getes, Gaeti तैमूर के समय तक यह तातार में वहां की एक कौम गिनी जाती थी) इत्यादि तातारी कौमों नो इस देश पर भारी चढ़ाई की थी और बिक्रम ने उन से अच्छी लड़ाई जीती 'बरन इसी लिये वह शकारि कहलाया बिक्रम नाम के इतने (आठ से अधिक) राजा हुए हैं कि उन के इतिहास मिलजुल जाने के कारन बहुत गड़बड़ हो गये हैयहां तक कि अकसर साहिब लोग संवत को विक्रम का चलाया नहीं मानते हैं क्योंकि उस समय उज्जैन में किसी बड़ महाराजाधिराज बिक्रम का कहीं कुछ पक्का पता नहीं नाटकं ५७१ 39