पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६२७

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अगरवालों की उत्पत्ति इसका रचनाकाल सन् १८७१ है। इसी वर्ष यह मेडिकल हाल प्रेस से छपी। १८७१ की किसी कविवचन सुधा मे इसका विज्ञापन भी छपा था। सन् १८८२ का खंडा विलास प्रेस बांकीपुर का भी एक संस्करण मिलता है। शेरिंग की कास्ट और ट्राइब में इस लेख का उल्लेख कई बार आता है। सं. भूमिका -- यह वंशावली परंपरा की जनश्रुति और प्राचीन लेखों से संगृहीत हुई है परंतु इसका विशेष भाग भविष्य पुराण के उत्तर भाग में के श्रीमहालक्ष्मी व्रत की कथा से लिया गया है। इसमें वैश्यों में मुख्य अगरवालों की उत्पत्ति लिखी है। इस बात का महाराज जय सिंह के समय में निर्णय हुआ था कि वैश्यों में मुख्य अगरवाले ही हैं। इन अगरवालों का संक्षेप वृत्तांत इस स्थान पर लिखा जाता है। इनका मुख्य देश पश्चिमोत्तर प्रांत है और बोली स्त्री और पुरुष सब की खड़ी बोली अर्थात् उई है। इन के पुरोहित गौड़ ब्राह्मण हैं और इनका व्यवहार सीधा और प्रायः सच्चा होता है और इस जाति में एक विशेषता यह है कि इन में कोई ऊँचे नीचे नहीं होते और न किसी को कोई अल्ल (उपाधि) होती है। बनारस और मिरजापुर में तो पुरबियों का नाम भी सुनाता है पर जो देश में पूछो कि तुम पुरविए हो कि पछाही तो वे लोग बड़ा आश्चर्य करते हैं और कहते हैं कि पुरबिए शब्द का क्या अर्थ है। बनारस के पछाँही लोगों में भी ठीक अगरवाले की रीत नही मिलती और उनकी बोली भी धैसी नहीं है। केवल जो घर दिल्ली वाले लोगों के हैं उनमें वे बातें हैं। इन लोगों में जैसा विवाहादिक में उत्साह अगरवालों की उत्पत्ति ५८३