पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६२८

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होता है वैसा ही मरने में बरसों दुःख भी करते हैं परंतु जो बूढ़ा मरता है तब तो विवाह से भी धूमधाम विशेष कर देते हैं!!! देश में तो जामा पगड़ी पहन के सब दाल भात खाते हैं पर इधर वह व्यवहार नहीं करते और केवल पूरी खाने में जाति का साथ देते हैं। एक बात यह भी इस जाति में उत्तम है कि अगरवालों में मास और मदिरा की चाल कहीं नहीं है पर हुक्का इनके पुरोहित और ये दोनों पीते हैं यों जो लोग नेमी हों वे न पियें पर जाति की चाल है। विवाह के समय इन का बहुत व्यय करना सब में प्रसिद्ध है। और इसी विपत से कई घर बिगड़ गए पर यह रीति छोड़ते नहीं। इन में कुछ लोग जैनी भी होते हैं। और देश में सब जनेऊ पहिरते हैं पर इधर पूरब में कोई कोई नहीं भी पहिरते। इनके पुरुषों का पहिरावा पगड़ी पायजामा या धोती और अंगा है और स्त्रियों का पहिरावा ओढ़ना घघरा या छोटेपन में सुथना है। और दशो संस्कार होने की चाल इन में अब तक मिलती है। पुरबियों के अतिरिक्त मारवाड़ी अगरवाले भी होते हैं पर इनका ठीक पता नहीं मिलता कि कब से और कहाँ से हैं। जैसे पछाँही अगरवालों की चाल खत्रियों से मिलती है वैसे ही इन मारवाड़ियों की महेशरियों से मिलती है पर पुरबियों की चाल तो इन दोनों से विलक्षण है। अगरवालों की उत्पत्ति की भूमिका में यह बात लिखनी भी आनंद देने वाली होगी कि श्रीनंदरायजी, जिन के घर साक्षात् श्रीकृष्णचंद्र प्रगट हुए, वैश्य ही थे और यह बात श्रीमद्भागवतादि ग्रंथों से भी निश्चय की गई है। जो हो, इस कुल में सर्वदा से लोग बड़े धनवान और उदार होते आए पर इन दिनों वे बातें जाती रही थी। मुगलों के समय से इनकी वृद्धि फिर हुई और अब तक होती जाती है। मैंने इस छोटे से ग्रंथ में संक्षेप से इनकी उत्पत्ति लिखी है। निश्चय है कि इसे पढ़ के वे लोग अपनी कुछ परंपरा जानेंगे और मुझे भी अपने दीन और छोटे भाइयों में स्मरण रक्खेंगे। वैशाख शुद्ध ५ सं० १९२८ काशी श्री हरिश्चंद्र DODONC भारतेन्दु समग्र ५८४