पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६३५

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बहुत परिश्रम करके प्राचीन संस्कृत ग्रंथ और ताम्रपत्रों से उन का जीवनवृत्तात संग्रह की । हम ने भी उन के ग्रंथ से कई एक बातें ग्रहण किया है। कालिदास विख्यात महाराजा विक्रम के नवरत्नों में थे । इसके व्यतिरिक्त उन के जीवन की और कोई प्रमाणिक बात लोग नहीं जानते । बंगदेश के कई अभिमानी पंडितों ने कालिदास को लंपट ठहरा कर उन के नाम से हास्यरस की कविताओं का प्रचार किया । पाठशाला के युवा ब्राह्मण थोड़ा सा मुग्धबोध व्याकरण पढ़ के इन श्लोकों का अभ्यास करके धनिक लोगों का मनोरंजन करते हैं और इसी प्रकार धनी लोगों से प्रति वर्ष कुछ पाते हैं । यथार्थ में तो यह सब कविता कालिदास की नहीं हैं, परंतु नवीन कवियों की बनाई हुई है। "प्रफुल्लित ज्ञान नेत्र" नामक पद्यमय पुस्तक बंगभाषा में मुद्रित हुई है । इस ग्रंथ में लोगों ने मिथ्या कल्पना करके कालिदास में ऊपर लिखा हुआ दोष ठहराया है । इसी प्रकार से इन दिनों अंगरेजी भूमिका सहित यह रघुवंश की सटीक पोथी मुद्रित हुई है । इस में भी लोगों ने मिथ्या कल्पना किया है । कालिदास ने कोई भी ग्रंथ में अपना वृत्तांत कुछ भी नहीं लिखा है, केवल, इतनाही प्रकट किया है। धन्वन्तरि: क्षपणकोमरसिंहशंकुः वेतालभघटखर्परकालिदासा: । ख्वातोबराहमिहिरोनृपतेः सभायांरत्नानिवैवरुचिर्नवविक्रमस्य ।। केवल इतना ही परिचय नवरत्नों का लिखा है । अभिज्ञानशाकुंतल-ग्रंथकर्ता के इतने ही परिचय से संतुष्ट रह के और-और संस्कृत ग्रंथों से इस विषय का अनुसंधान करना उचित है । प्राय : ५०० वर्ष हुए कि कोलाचल मल्लिनाथ सूरि ने कालिदास कृत काव्यों की टीका की है। उन्हीं ने यह टीका दक्षिणावरनाथ की टीका देखकर बनाई । परंतु वह अब दुष्प्राप्य है । भाषातत्ववित लासेन साहब ने यह लिखा है कि कालिदास ईस्वी दो संवत् में समुद्र गुप्त की सभा में वर्तमान थे । लासेन ने एक पत्थर देखा था. जिस पर यह लिखा था कि "समुद्र गुप्त कवि बंधु काव्य प्रिय और इसी से यह अनुमान करते हैं कि कविश्रेष्ठ कालिदास उन के सभासद थे । बेन्टली ने शियाटिक नामक पत्रिका में भोज प्रबंध का फरासीसी अनुवाद और "आईने अकबरी" को देख कर लिखा है कि भोज राजा के राज्य के ८०० वर्ष पश्चात् विक्रमादित्य के सभा में कालिदास वर्तमान थे. परंतु यह बात कदापि नहीं हो सकती । बेटली ने स्वीय ग्रंथों में कई एक ऐसी अशुद्ध बाते लिखी हैं जिनके पढ़ने से बोध होता है कि वह हिंदुओं का इतिहास कुछ भी नहीं जानते । कर्नेल विलफोर्ड, प्रिंसेप और एलफिनस्टन ने लिखा है कि कालिदास प्राय : १४०० वर्ष पूर्व वर्तमान थे। भोज प्रबंध के प्रमाणानुसार गुजरात, मालव और दक्षिण के पंडित कहते हैं कि कालिदास सन् ११०० ईस्वी में भोजराजा के सभासद थे । उज्जैन के राजसिंहासन पर कई विक्रमादित्य और भोजराज नामक राजा बैठे, परंतु सब से अंत के भोज राजा तो संवत् ११०० ईस्वी में राज्य करते थे। और इससे बोध होता है कि अंत के विक्रम ही को भोजराज कहते हैं और उन्हीं की नवरत्न की सभा थी । हमने स्वयं "भोजप्रबंध" पाठ कर के देखा है कि उनमें यह लिखा है कि मालव देशांतर्गत धारानगराधिप भोज सिन्धुल के पुत्र और मुंज के भ्रातृपुत्र थे । भोज के बाल्यावस्था में उन के पिता का परलोक हुआ तो उनके पितृव्य मुंज राजपद पर अभिषिक्त हुए और भोज ने उन के मंत्री बनकर बहुत विद्या उपार्जन किया और इसी प्रकार भोज दिन प्रतिदिन विख्यात होने लगे । तो मुंज के मन में यह शंका हुई कि अब लोग हमको पदच्युत करेंगे और यह विचार करने लगे कि किसी प्रकार से भोज का प्राणनाश करूँ । इसी हेतु मुंज ने वत्सराज राजा को बुलाकर अपना दुष्टविचार प्रकाशित किया और कहा कि भोज को शीघ्र ही अरण्य में ले जाकर इसका प्राणनाश करो । परंतु इस राजा ने भोज को तो छिपा रक्खा और पशु के रक्त से भरे हुए खड्ग को राजा मुंज के पास भेज दिया । इस को देखकर उन्होंने सानन्द चित्त से पूछा कि भोज ने मानव लीला समाप्त किया ? यह सुन वत्स राजा ने एक पत्र पर लिख १. राजा लक्ष्मण सिंह रघुवंश के उल्था में यों लिखते हैं :-"कालिदास नाम के कई कवि हुए हैं । उनमें दो मुख्य गिने जाते हैं -एक वह जो राजा वीर विक्रमाजीत की सभा के नौरत्नों में था, दूसरा जो राजा भोज के समय में हुआ । इनमें भी पण्डित लोग पहले को दूसरे से श्रेष्ठ मानते हैं और उसी के रचे हुए रघुवंश, कुमारसम्भव, मेघदूत, मृतुसंहार इत्यादि काव्य और शाकुंतल नाटक, विक्रमोर्वसी त्रोटक और और अच्छे अच्छे ग्रंथ समझे गए है। चरितावली ५९१