पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६३७

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बहुत से लोग उज्जयिनी नगर में जा बसे थे । यह और वृद्ध भोज दोनों जैनमतावलबी थे । ये सब वृत्तांत जैन ग्रंथों से ज्ञात होते हैं ओर और संस्कृत ग्रंथों में ये सब प्रमाण नहीं मिलते । वृद्धभोज मनोतुंग सूरि के शिष्य थे । मनांतुग और बाण, मयूर भट्ट के समकालिक जैनाचार्य थे । बाणकृत हर्षचरित पढ़ने से ज्ञात होता है कि उन्होंने सन् ७०० ईस्वी मो श्रीकंठाधिपति हर्षवर्द्धन के साथ भेंट किया था । यही कान्यकुब्बाधिपति हर्षवर्द्धन हियांग सियांग शिलादित्य थे और इन्हीं की सभा में हियांग सियांग नामक चैनिक परिव्राजक बुलाए गए थे । शिलादित्य थे और इन्हीं की सभा में हियांग सियांग नामक चैनिक परिव्राजक बुलाए गए थे । वाण कवि ने हियांग सियांग के ग्रंथ को पाठ करके अपना ग्रंथ बनाया ।। हर्षवर्दन के साथ चैनिकाचार्य के भेट का वृत्तांत हर्षचरित्र में 'यवन प्रोक्त पुराण" नामक ग्रंथ से लिया गया है 1 महर्षि कण्व ने अपने "कथा सरित्सागर के १८ वें अध्याय में नरवाहन दत्त को विक्रमादित्य का उपन्यास कहा है। उसमें लिखा है कि विक्रमादित्य सन् ५०० ईस्वी में राज्य करते थे । नरवाहन दत्त जैन ग्रंथ, कथा सरित सागर और मत्स्य-पुराण के मतानुसार शतानिक के पौत्र थे । नासिक में एक पत्थर की चट्टान मिली है जिस पर विक्रमादित्य का नाम लिखा है और उन को नाभाग, नहुष, जन्मेजय, ययाति और और बलराम के नाई योद्धा वर्णन किया है । पाठक जनों को देखना उचित है कि एक विक्रमादित्य के इतिहास में कितनी गड़बड़ है । लोगों में जो केवल एक ही विक्रमादित्य प्रसिद्ध हैं. इस समय के भारतवर्षीय इतिहासों में कई एक विक्रमादित्यों के नाम मिले हैं । परंतु हम को उस विक्रमादित्य का इतिहास ज्ञात होना आवश्यक है जिस से हम लोगों का संदेह दूर हो और यह जान पड़े कि नवरत्नों के अमूल्यरत्न कवि-चक्रचूडामणि कालिदास का विक्रमादित्य से कुछ संबंध है वा नहीं । श्री देवकृत विक्रमचरित में लिखा है कि विक्रमादित्य तीर्थकर वर्दमान के नाश होने के ४७० वर्ष परे उज्जयनी में राज्य करते थे और इन्होंने ही संवत स्थापन किया है, परंतु इस ग्रंथ में कालिदास का नाम भी नहीं लिखा है। पंडित तारानाथ तर्कवाचस्पति कहते हैं कि महाकवि कालिदास ने 'रघुवंश', 'कुमारसम्भव' और 'मेघदूत' बनाने के अनंतर ३०६८ कलिगताब्द में "ज्योतिर्विदाभरण नामक कालज्ञान शास्त्र बनाया । मेघदत-प्रकाशक बाबू प्राणनाथ पंडित महाशय ने भी इस बात अपनी भूमिका में लिखा है, परंतु यह किसी का ग्रंथ नहीं दृष्टि पड़ता कि 'ज्योतिर्विदाभरण' रघुकार कालिदास रचित है । तर्कवाचस्पति महाशय के मत को सहायता देने के निमित्त "ज्योतिर्विदाभरण" के कतिपय श्लोकों का अनुवाद करके नीचे लिखते हैं, जैसा कालिदास ने लिखा। मैंने इस प्रफुल्लकर ग्रंथ को भारतवर्षांतरगत मालव देश में (जिस में १८० नगर हैं) राजा विक्रमादित्य के राज्य के समय रचा है ।।७।। शंकु, वररुचि, मणि, अंशुदत्त, जिष्णु, त्रिलोचन हरि, घटकपर, अमर सिंह और और बहुत से कवियों ने उनके सभा को सुशोभित किया था ।।८।। सत्य, वराहमिहिर, अतिसेन. श्रीवादरायणी, भनिथ्व, कुमार सिंह और कई एक महाशय ज्योतिषशास्त्र के अध्यापक थे ।।९।। धन्वंतरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बैतालभट्ट, घटकर्पर, कालिदास और वराहमिहिर और वररुचि. ये सब महाशय विक्रम के नवरत्न थे ।।१०।। विक्रम की सभा में ८00 छोटे छोटे राजा और उनके महासभा में १६ वाग्मी, १० ज्योतिषी, ६ वैद्य और १६ वेद-पारग पंडित उपस्थित रहते थे ।।११।। कोई कहते हैं कि यह कवि, मालवा के हर्ष विक्रमादित्य के समय, हज़रत ईसा की छठवीं सदी में था । उस राजा की राजधानी उज्जैन नगरी थी । इसी कारण कालिदास भी वहाँ रहा था । राजा विक्रम की सभा में नौ रत्न थे, उनमें से एक कालिदास था । कहते हैं कि लड़कपन में इसने कुछ भी नहीं पढ़ा लिखा, केवल एक स्त्री के कारण इसे यह अनमोल विद्या का धन हाथ लगा । इस की कथा यो प्रसिद्ध है कि राजा शारदानंद की लड़की विद्योत्तमा बड़ी पंडिता थी । उसने यह प्रतिज्ञा की कि जो मुझे शास्त्रार्थ में जीतेगा, उसी को ब्याहूँगी । उस राजकुमारी के रूप, यौवन, विद्या की प्रशंसा सुनकर दूर दूर से पंडित आते थे पर शास्त्रार्थ के समय उस से DAME चरितावली ५९३