पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ht सब हार जाते थे । जब पंडितों ने देखा कि यह लड़की किसी तरह वश में नहीं आती और सब को हरा देती है, तो मन में अत्यंत लज्जित होकर सबने पक्का किया कि किसी ढब विद्योत्तमा का विवाह किसी ऐसे मूर्ख के साथ करावें, जिसमें वह जन्म भर अपने घमंड पर पछताती रहे । निदान वे लोग मूर्ख के खोज में निकले । जाते जाते देखा कि एक आदमी पेड़ के ऊपर जिस टहनी के ऊपर बैठा है, उसी को जड़ से काट रहा है। पंडितों ने उसे महा मूर्ख समझ कर बड़ी आवभगत से नीचे बुलाया और कहा कि चले हम तुम्हारा ब्याह राजा की लड़की से करा देवें । पर खबरदार राजा की सभा में मुंह से कुछ भी बात न कहो, जो बात करनी हो इशारों में कहियो । निदान जब वह राजा की सभा में पहुँचा, जितने पंडित वहाँ बैठे थे, सब ने उठकर उस की पूजा की, ऊंची जगह बैठने को दी और विद्योत्तमा से यो निवेदन किया कि ये वृहस्पति के समान विद्वान हमारे गुरु आपके ब्याहने को आये हैं । परंतु इन्होंने तप के लिए मौन साधन किया है । जो कुछ आप को शास्त्रार्थ करना हो, इशारों से कीजिए । निदान उस राजकुमारी ने इस आशय से, कि ईश्वर एक है, एक उंगली उठाई । मूर्ख ने यह समझकर कि धमकाने के लिए उँगली दिखा कर आँख फोड़ देने का इशारा करती है, अपनी दो उँगलियाँ दिखलाई । पंडितों ने उन दो उँगलियों के ऐसे अर्थ निकाले कि उस राजकुमारी को हार माननी पड़ी और विवाह भी उसी दम हो गया । रात के समय जब दोनों का एकांत हुआ, किसी तरफ से एक ऊंट चिल्ला उठा । राजकन्या ने पूछा कि यह क्या शोर है, मूर्ख तो कोई भी शब्द शुद्ध नहीं बोल सकता था, कह उठा उद्र चिल्लाता है । और जब राजकुमारी ने दुहराकर पूछा तो, उद्र की जगह उस्ट्र कहने लगा, पर शुद्ध उष्ट्र का उच्चारण न कर सका । तब तो विद्योत्तमा को पंडितों की दगाबाजी मालूम हुई और अपने धोखा खाने पर पछताकर फूट- फूट कर रोने लगी । वह मूर्ख भी अपने मन में बड़ा लज्जित हुआ । पहिले तो चाहा कि जान ही दे डालूं पर सोच समझकर घर से निकल विद्या उपार्जन में परिश्रम करने लगा । और थोड़े ही दिनों में ऐसा पंडित हो गया, जिस का नाम आज तक चला जाता है । जब वह मूर्ख पंडित होकर घर में आया, तो जैसा आनंद विद्योत्तमा के मन में हुआ, लिखने से बाहर है। सच है, परिश्रम से सब कुछ हो सकता है । कालिदास के समय घटसर्पर, वररुचि आदि और भी कवि थे । कालिदास ने काव्य, नाटकादि अनेक ग्रंथ संस्कृत-भाषा में लिखे हैं । इन की काव्य-रचना बहुत सादी, मधुर और विषयानुसारिणी है । अंगरेज लोग कालिदास को अपने शेक्सपियर के सदृश उपमा देते हैं । इसके समय में मवभूति नामक एक कवि था । कहते हैं कि उसकी विद्या कालिदास से अधिक थी। परंतु कवित्वशक्ति कालिदास की सी न थी । भवभूति कालिदास के श्रेष्ठत्व को मानता था । कालिदास सारस्वत ब्राह्मण था । उस को आखेट आदि खेलों की बड़ी चाह थी और उसने अपने ग्रंथ में इस का वर्णन किया है कि मनुष्य के शरीर पर ऐसे खेलों से क्या क्या उपकारी परिणाम होते हैं। विक्रमादित्य ने उस को कश्मीर का राजा बनाया और यह राज्य उस ने चार बरस नौ महीने किया । कालिदास उज्जैन में रहता था, परन्तु उसको जन्मभूमि कश्मीर थी । देशांतर होने पर स्त्री के वियोग से जो दुख उसने पाये, उन का बखान मेघदूत-काव्य में लिखा है । कालिदास बड़ा चतुर पुरुष था । उसकी चतुराई की बहुत सी कहानियाँ हैं और वे सब मनोरंजन हैं, यथा उनमें से कई एक ये है। (१) भोजराजा के कवित्व पर बड़ी प्रीति थी । जो कोई नया कवि उसके पास आता और कविताचातुर्य बताता, तो उसको वह अच्छा पारितोषिक देता, और चाहता तो अपनी सभा में भी रखता । इस प्रकार से यह कविमंडल बहुत बढ़ गया । उसमें कई कवि तो ऐसे थे कि वे एक बार कोई नया श्लोक सुन लेते, तो उसे कंठ कर सकते थे । जब कोई मनुष्य राजा के पास आकर नया श्लोक सुनाता था, तो कहने लगते थे, कि यह तो हमारा पहिले ही से जाना हुआ है और तुरंत पढ़कर सुना देते थे। एक दिन कालिदास के पास एक कवि ने आकर कहा कि महाराज, आप यदि राजा के पास ले चलें और कुछ धन दिला देवें, तो मुझ पर आप का बड़ा उपकार होगा । जो मैं कोई नया श्लोक बनाकर राजसभा में सुनाऊँ तो उनका नूतनत्व मान्य होना कठिन है इस लिए कोई युक्ति बताइए । कालिदास ने कहा कि तुम श्लोक में ऐसा कहो कि राजा से मुझ को रत्नों का हार लेना है, और जो मैं कहता हूँ, सो यहाँ के कई पंडितों को भी मालूम होगा । इस पर यदि पंडित लोग कहें कि श्लोक पुराना है, तो तुम को रत्नों का हार मिल जायगा, नहीं नए श्लोक का अच्छा पारितोषिक मिलेगा । भारतेन्दु समग्र ५९४