पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६३९

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उस कवि ने कालिदास की बताई हुई युक्ति को मानकर वैसा ही श्लोक बनाया और जब उस को राजसभा में पढ़ा, तो कविमंडल चुपचाप हो रहा और उस कवि को बहुत सा धन मिला । (२) एक समय कालिदास के पास एक मूढ़ ब्राहमण आया और कहने लगा कि कविराज मैं अति दरिद्री हूँ और मुझ में कुछ गुण भी नहीं है, मुझ पर आप कुछ उपकार करें तो भला होगा। कालिदास ने कहा, अच्छा हम एक दिन तुम को राजा के पास ले चलेंगे, आगे तुम्हारा प्रारब्ध । परन्तु रीति है कि जब राजा के दर्शन निमित्त आते हैं, तो कुछ भेंट ले जाया करते हैं. इसलिए मैं जो ये साटे के चार टुकड़े देता हूँ सो ले चलो । ब्राह्मण घर लौटा और उन साँटे के टुकड़ों को उस ने धोती में लपेट रक्खा । यह देख किसी ठग ने उस के बिन जाने उन टुकड़ों को निकाल लिया और उन के बदले लकड़ी के उतने ही टुकड़े बाँध दिए । राजा के दर्शनों को चलने के समय ब्राह्मण ने साँटे के टुकड़ों को नहीं देखा । जब सभा में पहुंचा तब यह काष्ठ की भेंट राजा को अर्पण की । राजा उस को देखते ही बहुत क्रोधित हुआ । उस समय कालिदास पास ही था । उस ने कहा, महाराज, इस ब्राह्मण ने अपनी दरिद्ररूपी लकड़ी आप के पास लाकर रक्खी है इसलिये कि उस को जला कर इस ब्राह्मण को आप सुखी करें! यह बात कवि के मुख से सुनते ही राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उस ब्राह्मण को बहुत धन दिया । (३) एक समय राजा भोज कालिदास को साथ ले वनक्रीड़ा के हेतु अरण्य को गए, और घूमते-घूमते थके माँद हो, एक नदी के किनारे जा बैठे । इस नदी में पत्थर बहुत थे, उन पर पानी गिरने से बड़ा शब्द होता था । उस समय राजा ने कालिदास से विनोद करके पूछा कि कविराज यह नदी क्यों रोती है ? कालिदास ने उत्तर दिया कि महाराज वह छोटे ही पन में अपने मैके से ससुराल को जाती है । कालिदास के प्रसिद्ध ग्रंथ शकुंतला, विक्रमोर्वशी, मालविकाग्निमित्र और मेघदूत हैं । शकुंतला बहुत वर्णनीय ग्रंथ है । उस का उल्था यूरप में सब देशों की भाषाओं में हो गया है । एक समय कविवर कालिदास अपने मकान में बैठकर अपने प्रिय पुत्र को अध्ययन कराता था, उसी समय क्षत्रिय-कुल-भूषण शकारि विक्रमादित्य संयोग से आ गए । कविवर कालिदास ने महाराज को देख प्रिय पुत्र का पढ़ाना छोड़ कर शिष्टाचार की रीति से महाराज का आदर मान किया । जब क्षत्रिय-कुल-भूषण राजा विक्रमादित्य ने पढ़ाने की प्रार्थना की तब फिर अध्ययन कराना प्रारंभ किया । उस समय कविवर कालिदास अपने प्रिय पुत्र को यही पढ़ाता था कि राजा अपने देश ही में मान पाता है और विद्वान का मान सब स्थानों में होता है । महाराज इस प्रकार की शिक्षा को सुन कर अपने मन में कुतर्क करने लगे कि कविराज कालिदास ऐसा अभिमानी पंडित है कि मेरे ही सामने पंडितों की बड़ाई करता है और राजाओं को वा धनवानों को वा मुझे नीचा देखता है । मैं पंडितों का विशेष आदर मान करता हूँ और जो मेरे वा राजाओं के वा धनवानों के यहाँ पंडितों का आदर नहीं, तो कहाँ हो सकता है। ऐसा कुतर्क करते हुए अपने घर पर गए । महाराज विक्रमादित्य ने कविवर कालिदास को जो धन संपत्ति दी थी उसको हर लेने के लिए मंत्री को आज्ञा दी । मंत्री ने वैसा ही किया जैसा महाराज ने कहा था । कविवर कालिदास की जीविका जब हर ली गई तब दु :खी होकर अपने बाल बच्चों के साथ अनेक देशों में भटकता अन्त में करनाटक देश में पहुंचा । करनाटक देशाधिपति बड़ा पंडित और गुणग्राहक था । उसके पास जाकर कविवर कालिदास ने अपनी कविताशक्ति दिखाई, तो उस पर करनाटक देशाधिपति ने अति प्रसन्न होकर बहुत सा धन और भूमि देकर उसको अपने राज्य में रक्खा । कविवर कालिदास राजा से सम्मान पाकर उस देश में रहकर प्रतिदिन राजसभा में जाने लगा। वहाँ राजा के सिंहासन के पास ऊंचे आसन पर बैठ सब राजकाजों में उत्तम सलाह देने लगा और अनेक प्रकार की कविताओं से सभासदों के मन की कली खिलाता हुआ सुख से रहने लगा । जब से कविवर कालिदास को विक्रमादित्य ने छोड़ा तब से वे बड़े शोक-सागर में डूबे थे। नवरत्नों में कविवर कालिदास ही अनमोल रत्न था । इसके सिवाय जब राजा को राजकाज के कामों से फुरसत मिलती थी तब केवल कविराज कालिदास ही की अद्भुत १. राजा कन्या ज्योतिषी, वैद गुरू सुर सिद्ध । भरे हाथ इन पै गए, शेष कार्य सब सिद्ध ।। चरितावली ५९५