पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ROY स्वामी उन के उपदेशानुसार रंगपत्तन आए और विधिपूर्वक पंच संस्कार' दीक्षित होकर संस्कृत और द्राविड़ भाषा के ग्रंथ सरहस्य पूर्णाचार्य से पढ़े । कुछ काल पीछे एक कुंए में से जल निकालते समय पूर्णाचार्य की स्त्री से और स्वामी की स्त्री से कुछ कलह हो गई, इससे स्वामी रक्षकाम्बा से उदास हो गए । एक यही नहीं, अनेक समय में रक्षकाम्बा के खरतर स्वभाव का परिचय मिलने से स्वामी का जी उस की ओर से खिंच गया था, इस से स्वामी ने उनको नैहर भेज दिया और आप भी सब धन गृह आदि का त्याग करके त्रिदण्ड संन्यास ग्रहण किया । कांचीपूर्ण ने इस पर अति प्रसन्न होकर 'यतिराज' की स्वामी को पदवी दिया । कुछ दिन पीछे स्वामी के भांजे दाशरथि और अनंतभट्ट के पुत्र कूरनाथ वह दोनों आकर कांची रहने लगे और स्वामी से विद्या पढ़ने लगे । एक समय यादव पंडित कांची आए और शंख चक्र से स्वामी का कलेबर चिन्हित देख कर बड़ा आपेक्ष किया । इस पर स्वामी की इच्छा से कूरनाथ ने शास्त्रार्थ पूर्वक स्वमत स्थापन कर के यादव को निरुत्तर किया । यादव पंडित ने भी ज्ञान पाकर त्रिदंड ग्रहणपूर्वक गृहस्थाश्रम का परित्याग किया और दीक्षित होकर गोविंददास यह नाम पाया । इन्ही गोविंददास ने 'यतिधर्म समुच्चय' नामक ग्रंथ बनाया है। कुछ काल के पीछे यमुनाचार्य के पुत्र वररंग स्वामी रामानुज को लेने को हस्तिगिरि आए । यहाँ उन्होंने नाटकों का अभिनय दिखला कर श्रीवरदराज को माँगा और वहाँ से रामानुज स्वामी को लाकर रंगनाथ जी को समर्पण किया, जिससे स्वामी अब रंगनाथ जी की सेवा का अधिकार और उस संप्रदाय का आचार्यत्व दोनों के अधिकारी हुए। . उसी समय में स्वामी के ममेरे भाई वेंकट गोविंद पंडित से, जो कि बड़े शैव थे, वेंकटगिरि के निवासी श्री शैलपूर्ण नामक वैष्णव यति से बड़ा भारी शास्त्रार्थ हुआ, जिस में गोविंद पंडित ने पराजय पाकर श्री शैलपूर्ण का शिष्यत्व अंगीकार किया । कुछ दिन पीछे पूर्णाचार्य के उपदेश से स्वामी रामानुज अठारह बेर गोष्ठीपुर में गोष्ठीपूर्णचार्य से तत्व पूछने की इच्छा से गए और यद्यपि पहिले उन्होंने बहुत आनाकानी की पर अंत में सब रहस्य स्वामी को उपदेश किया किंतु यह कह दिया था कि यह किसी को बतलाना मत । स्वामी रामानुज मंत्री का रहस्य पाकर ऐसे परितुष्ट हुए कि अनेक लोगों से उन्होंने दयापूर्वक वह रहस्य कहा । जब गोष्ठीपूर्णाचार्य को यह बात मालूम हुई, तब उन्होंने स्वामी को बुला कर पूछा कि "जो गुरु की आज्ञा उल्लंघन करै उस की क्या गति होती है ?" स्वामी ने उत्तर दिया 'नर्क' । तब गुरु ने पूछा कि फिर तुम ने हमारी आज्ञा उल्लंघन कर के रहस्य क्यों लोगों से कहा । इस पर स्वामी ने अपने दयापरवश उदार स्वभाव से निर्भय होकर उत्तर दिया- 'पतिष्ये एक एवाह नरके गुरुपातकात्। सर्वे गच्छन्तु भवतां कृपया परम पदम् ।। अर्थात आप की आज्ञा टालने से मैं एक नरक में पई किंतु और लोग जिन से हम ने रहस्य का उपदेश किया है वे आप की दया से परम पद पावै । गुरु उन के उस उदार वाक्य से ऐसे प्रसन्न हुए कि "मन्नाथ," अर्थात् हमारे भी स्वामी. उन का नाम रक्खा और वरदान दिया कि आज से यह वैष्णव सिद्धांत रामानुज सिद्धांत से प्रचलित होगा और संसार में तुम आचार्य रूप से प्रसिद्ध होगे । कुछ काल पीछे स्वामी के भाज दाशरथि स्वामी की आज्ञा से पूर्णाचार्य की बेटी के ससुराल में उस का काम काज सम्हालने को रहने लगे । वहाँ एक वैष्णव श्रुतियों का कुछ विरुद्ध अर्थ करता था । उस से शास्त्रार्थ कर के उस को उन्होंने स्वामी के पास दीक्षित होने को भेज दिया और वह वैष्णव दास नाम पाकर इस मत का एक मुख्य पंडित हुआ । इस सम्प्रदाय में मालाधर नामक एक बड़े पंडित थे । शठकोपाचार्य कृत सहस्रगीतिका स्वामी ने उन से व्याख्यान सुना । ऐसे ही अनेक वयोवृद्ध और जानवृद्धो से स्वमत का अनेक सिद्धांत स्वामी ने लिया । वरच अपने पुत्र सुंदरबाहु को मालाधर ही से दीक्षित कराया । १. दो० -ऊर्ध पुड, मुद्रा बहुरि, माला, मंत्र, विचार । संसकार ए वैष्णवी, धर्म कर्म को सार ।।१।। भारतेन्दु समग्र ५९८