पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६४४

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स्वामी की इच्छा थी कि पंचरात्र के विधि से जगन्नाथ जी की सेवा हो परंतु पंडे लोग अपने मन से सब काम करते थे और श्री जगन्नाथ जी भी इसी से प्रसन्न थे । क्योंकि जब स्वामी जी ने इस बात में आग्रह किया, तो एक रात देवगण ने स्वामी को सोते हुए उठा कर कूर्मक्षेत्र में रख दिया । जाग कर स्वामी ने यह चरित्र देखा और भगवदिच्छा मुख्य समझ कर फिर इस विषय में आग्रह न किया । कुछ दिन कर्माचल रहकर स्वामी सिंहाचल, अहोबलक्षेत्र, गरुडाचलादि तीर्थों में गए और वहाँ से फिर वेंकटगिरि जाकर वहाँ के शैवों को शास्त्रार्थ में परास्त किया । कुछ काल पीछे कुरेश को व्यास-पराशर के अंश के दो पुत्र एक साथ उत्पन्न हुए । स्वामी ने एक का नाम पराशर और दूसरे का व्यास वा श्री रामदेशिक रक्खा । इन्हीं पराशर को रंगेश ने अपुत्र होने के कारण गोद लेकर बड़े धूमधाम से विवाह किया था । गोविंद को भी कालांतर में पुत्र हुआ, तो स्वामी ने परांकुश उसका नाम रक्खा । मथुरा के एक धनिक धनुर्दास को उस की भार्या हेमांगना समेत स्वामी ने वैष्णव दीक्षा दी । यह धनुर्दास ऐसा उत्तमवैष्णव हुआ है कि रंगनाथ जी के उत्सव में स्वामी एक बार उस को मित्र की भांति पकड़े हुए थे और इस पर जब लोगों ने पूछा तो स्वामी ने उसकी वैष्णवता की बड़ी स्तुति की । उसी समय में चोलदेश का एक बड़ा भारी शैव राजा कृमिकंठ हुआ था जिस ने चित्रकूट तक विजय किया था । इस ने एक बार शास्त्रार्थ के हेतु प्रार्थनापूर्वक स्वामी को बुलाया । स्वामी उस के यहाँ जाते थे कि मामि चेलाचलाम्बा और उसके पति को दीक्षित किया । और बहुत से बौदों को शास्त्रार्थ में जय किया । इसी प्रकार कुछ दिन भक्तनगर में रहे । वहाँ स्वप्न देखने से इन्होंने यादवाचल जाकर वहाँ छिपी हुई भगवन्मूर्ति को निकाला और शके १०१२ में उस मूर्ति को यादवाचल में प्रतिष्ठित किया । एक बार स्वामी को खबर मिली कि दिल्ली के राजा के घर में रामप्रिय नामक एक नारायण की मूर्ति है । स्वामी यह सुनकर दिल्ली गए और वहाँ कुछ दिन रह कर राजा से वह मूर्ति ले आए । कहते हैं कि दिल्ली के राजा की बेटी उस भगवद्विग्रह पर ऐसी आसक्त थी कि भक्ति प्रभाव से आज तक नारायण की मूर्ति उस के पास तथा यादवाचल में वर्तमान है। इसके पीछे बिष्णुचित्त की बेटी गोदा को स्वामी ने उपदेश दिया । इन के ७४ शिष्य बड़े प्रसिद्ध हुए हैं । इन में भी आंध्रपूर्ण की बड़ी महिमा है 1 इस प्रकार स्वामी रामानुज आचार्य एक सौ बीस वर्ष पृथ्वी पर रहे और चारो ओर वैष्णव संप्रदाय का प्रचार करके सब शिष्यों को भगवद्भक्ति का उपदेश करके माघ सुदी १० को परम-धाम पधारे । इनके पीछे रंगनाथ जी के मंदिर का अधिकार पराशर को मिला और दाशरथि, पूर्णाचार्य, गोविंद और कुरुक ये चार मत- शाखा-प्रवर्तक हुए । इस संप्रदाय के मुख्य बड़े बड़े लोग शठकोपाचार्य, रंगश, वेंकटेश, वरद, बकुला- -भरण, सुंदर । यामुनाचार्य, वररंग, पूर्णाचार्य, गोष्ठीपूर्ण, मासभद्र, माधवदास, कासार, भक्तिसार, फणि कृष्ण, कुलशेखर, भट्टनाथ, पद्मराज और अनंताचार्य आदिक है दानपत्रादिकों से और दक्षिण राजाओं के घर के लेखकों से निश्चय होता है कि ईस्वी सन् १०१० वा इसके आस पास किसी संवत् में स्वामी का जन्म हुआ था और द्वादश शताब्दी के पूरे पूरे भोग में ये वर्तमान थे। इनका मत विशिष्टाद्वैत है और उपास्वदेव साकारा ब्रहमनारायण है । ये भुजा पर तप्त चक्र की छाप देते हैं । हिंदुस्तान के सब प्रांत में इस मत के लोग मिलते हैं । और बहुत बड़े बड़े पंडित इस मत में हैं बड़गल और तिंगल ये दो शाखा इस मत की बहुत प्रसिद्ध हैं । पीछे तो रामानंद आदि अनेक शाखा इस की हुई हैं। इनके संप्रदाय के वैष्णव श्री वैष्णव कहलाते हैं। 1 1 भारतेन्दु समग्र ६००