पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६४७

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आचार्य जी ने यह सुनकर कहा जो सचमुच यह बूढ़ा ब्राहमण व्यास होगा, तो अवश्य हमारे उत्तर पर संतुष्ट हो के प्रत्यक्ष दर्शन देगा । व्यास जी यह सुनकर आप प्रत्यक्ष हुए और आचार्य जी से कहा कि मैं तुम्हारी परीक्षा लेने के वास्ते आया था । तुम तो शिव के अवतार हो तुम को कौन जीतने वाला है । फिर व्यास ने आचार्य को वर दिया और ब्रमा को बुला कर इनकी आयु बढ़ा दी । तब से आचार्य का प्रताप द्विगुणित बढ़ गया । कुछ समय के अनंतर आचार्य जी रुद्धपुर में गए । वहाँ भट्टपाद, जिसे कुमारिल कहते हैं और जिस ने मीमांसातन्त्र वार्तिक नामक एक बड़ा भारी ग्रंथ बनाया है, तुषाग्नि में बैठा था । आचार्य जी ने उससे भेंट करके वाद-भिक्षा माँगी, परंतु भट्टपाद ने कहा कि मैं अब शरीर दग्ध होने के कारण तुम्हारे साथ शास्त्रार्थ करने में असमर्थ हूँ । मेरा बहनोई मंडनमित्र, जो हस्तिनापुर से आग्नेय दिशा में बिजिलबिंदु नाम नगर में रहता है, तुम से शास्त्रार्थ करेगा और उससे तुम्हारा गर्व शान्त हो जायगा । आचार्य जी यह वचन सुन कर वहाँ गये और लोगों से मंडनमिश्न के घर का ठिकाना पूछा । लोगों ने उत्तर दिया कि जहाँ तोते और मैने शास्त्रार्य करते हैं वही मंडनमिन का घर है । शंकराचार्य जी ने सोचा कि जो मैं दरवाजे से जाता हूँ तो मुझे बहुत काल लगेगा, इस लिये मंत्र के बल से आकाशमार्ग से उसके घर में उतरे । कोई कहते हैं कि उस के घर के पीछे एक लंबा ताड़ का पेड़ था उस पर चढ़ कर घर में गये । उस समय मंडनमिश्र श्राद्ध करता था । इनको देखते ही बहुत ऋद हो गया क्योंकि ये संन्यासी थे और उस ने संन्यास का खंडन किया था और कहा, "कुतो मुण्डी" । आचार्य जी ने उत्तर दिया, "आगलान्मुण्डी" । मंडन ने कहा - "सुरापीता" । शंकर जी ने कहा "साहिश्वेता" इत्यादि दोनों के संवाद हुए । मिश्र जी श्राद्ध समाप्त करने के अनंतर आचार्य से शास्त्रार्थ करने में प्रवृत्त हुए और उसकी स्त्री सरसबाणी, जिसे सरस्वती का साक्षात अवतार कहते थे, मध्यस्थ हुई। दोनों से सौ दिन तक शास्त्रार्थ हुआ । अंत में मंडनमिश्न का पराजय हुआ और संन्यासाश्रम को स्वीकार किया । पुराण में मंडनमिश्र को ब्रहमा का अवतार लिखा है। जब मंडनमिश्न संन्यास लेने लगे उस के पहिले ही सरसबाणी अपना पूर्व शरीर छोड़ कर ब्रह्मलोक को जाने लगी । शंकराचार्य ने वन दुर्गा मंत्र में आकर्षण किया और कहा कि मुझसे शास्त्रार्थ करके चली जाओ । उसने कहा मैने वैधव्य के भय से अपने पति के संन्यास के पहले ही पृथ्वी को त्याग किया । अब पृथ्वी पर नहीं आ सकती, क्योंकर तुम से शास्त्रार्थ करूँ । आचार्य ने उत्तर दिया कि आकाश में भूमि से छ : हाथ दूरी पर खड़ी होके मुझसे शास्त्रार्थ कर । उसने आचार्य के कहने के अनुसार शास्त्रार्थ किया, अंत में हार गई, तब उस ने सोचा कि यह संन्यासी है इस को काम-शास्त्र नहीं आता होगा इसमें जो पूछेगे तो उत्तर नहीं दे सकेगा । फिर सरसवाणी ने कहा कि काम-शास्त्र में विवाद करो । शंकाराचार्य इस वचन को सुनकर चुप हो गये और कहा कि छ : महीने के अनंतर तुमसे इसी शास्त्र में विवाद करूंगा। तब शंकराचार्य अमृतपुर में गए । वहाँ का राजा मर गया था । इसका नाम अमरु करके प्रसिद्ध था । उसका शरीर जलाने के लिये चिता पर रक्खा था इतने में शंकराचार्य ने अपने शरीर से प्राण निकाल कर परकायप्रवेश विद्या के बल से उस राजा के मृत शरीर में प्रवेश किया और शिष्यों ने आचार्य का शरीर एक पहाड़ की गुफा में रक्खा । कहीं लिखा है इस राजा की सौ रानी थीं उन में जो बड़ी थी उस ने देखा कि पति की चेष्टा पहले ऐसी नहीं है केवल पहला शरीर मात्र वही है और इस की आत्मा किसी योगी की जान पड़ती है नहीं तो इतना चातुर्य इस में कहाँ से होता । रानी ने आज्ञा दी कि जहाँ कहीं मृत शरीर मिले उसी क्षण उस को जला दो । राजदूतों ने आचार्य का शरीर गुफा में पाया और उसको जलाने के लिये चिता पर रक्खा और आग लगा दी । आचार्य के शिष्यों ने देख कर राजा की स्तुति की । उस का अभिप्राय यही थी कि राजा, तू शंकराचार्य है दूसरा कोई नहीं । उसी क्षण राजा के शरीर से प्राण ने निकल कर उस चिता पर रक्खे हुए शरीर में प्रवेश किया और अग्नि शांत होने के लिये नृसिंह की स्तुति की । नृसिंह ने प्रसन्न हो के वर दिया । वहाँ से सरस्वती के पास आये और उसको जीत लिया और उस को साथ लेकर अंगपुर में आये, जिस को अब श्रृंगेरी कहते है और जो तुंगभद्रा के तीर पर है । उसी स्थल पर सरस्वती की स्थापना की और भारती संप्रदाय की शिष्य परंपरा करने की रीति स्थापन की । शंकराचार्य की गुरुपरंपरा इस प्रकार से लिखी है । पहिले नारायण, फिर ब्रहमा, वशिष्ठ, शक्ति, पराशर, व्यास, सुक, गौड़पाद, गोविंद योगीन्द्र, श्री शंकराचार्या । इन के १२ मुख्य शिष्य हुए उन के नाम चरितावली ६०३ 41