पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६४८

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पहिले लिख आये है। श्रृंगेरी में १२ बरस रह कर कांचीपुर में गये । वहाँ कामाक्षा देवी की स्थापना की और कांची का नगर बसाया और विष्णुकाची में वरदराज विष्णु का और शिवकांची में शिव का मंदिर बनवाया और अवताम्रपर्णी नदी के तीर पर रहने वाले लोगों को शिष्य किया । प्राय : सब भारतवर्ष में इनकी शिष्यशाखा फैली । श्री शंकराचार्यजी ने व्यास सूत्र पर अद्वैत भाष्य और दस महोपनिषदों और गीता पर भी भाष्य बनाये । और कई एक ग्रंथ बनाये हैं वे सब अब तक मिलते हैं । इनका मत यह था कि प्रपंच में ब्रहम को छोड़कर जो कुछ दिखाई देता है सब मिथ्या है. सब ब्रह्म रूप है. और ईश्वर और जीव एक ही है इत्यादि, उनके ग्रंथों को देखने से जान पड़ता है । इसी लिये किसी मत को जिस में ईश्वर की सत्ता मानी जाती है सर्वथा खंडन नहीं किया । नास्तिक मत को छोड़कर सब मतों को स्थापन किया और ३२ बरस के वय में परलोक को चले गये । शक्ति संगम तंत्रादिक ग्रंथों में तो १६ ही वर्ष लिखे हैं परंतु शंकर विजयादि ग्रंथों से ज्ञात हुआ कि जो ऊपर संख्या लिखी है ठीक है क्योंकि इतना कृत्य इतने थोड़े समय नहीं हो सकता । इनकी कीर्ति अब तक इस भारतवर्ष में चली जाती है और प्राय : यहां के लोग भी इसी मत पर चलते हैं। मैंने शंकाराचार्य का जीवनवृतांत बहुत संक्षेप से लिखा है । यदि इसमें कहीं शीघ्रता के हेतु भूल हो तो पढ़ने वाले उस पर क्षमा करें क्योंकि शास्त्र में लिखा है कि भ्रांति पुरुष का धर्म है। ५. महाकवि श्री जयदेव जी* जयदेव जी की कविता का अमृत पान करके तृप्त चकित, मोहित और चूर्णित कौन नहीं होता और किस देश में कौन सा ऐसा विद्वान है जो कुछ भी संस्कृत जानता हो और जयदेव जी की काव्य-माधुरी का प्रेमी न हो । जयदेव जी का यह अभिमान कि अंगूर और ऊख की मिठास उनकी कविता के आगे फीकी है बहुत सत्य है। इस मिठाई को न पुरानी होने का भय है न चीटी का डर है, मिठाई है, पर नमकीन है यह नई बात है । सुनने पढ़ने की बात है पर गूगे का गुड़ है । निर्जन में जंगल पहाड़ में जहाँ बैठने को बिछौना भी न हो वहाँ गीतगोबिंद सब आनंद सामग्री देता है, और जहाँ कोई मित्ररसिक भक्त-प्रेमी न हो वहाँ यह सब कुछ बन कर साथ रहता है । जहाँ गीतगोविंद है वहीं वैष्णव गोष्ठी है. वहीं रसिक-समाज है. वहीं वृंदावन है. वहीं प्रेमसरोवर है. वहीं भाव-समुद्र है. वहीं गोलोक है और वहीं प्रत्यक्ष ब्रहमानंद है । पर यह भी कोई जानता है कि इस परब्रह्म-रस प्रेम-सर्वस्व श्रृंगार-समुद्र के जनक जयदेव जी कहाँ हुए ? कोई नहीं जानता और न इसकी खोज करता । प्रोफेसर लैसेन ने लैटिन भाषा में और पूना के प्रिन्सिपल आरनल्ड साहब ने अंगरेजी में गीत-गोविंद का अनुवाद किया, परंतु कवि का जीवनचरित्र कुछ न लिसा केवल इतना ही लिख दिया कि सन ११५० के लगभग जयदेव उत्पन्न हुए थे । किंतु धन्य हैं बाबू रजनीकांत गुप्त कि जिन्होंने पहिले पहल इस विषय में हाथ डाला और "जयदेवचरित्र" नामक एक छोटा सा ग्रंथ इस विषय पर लिसा । यद्यपि समयनिर्णय में और जीवनचरित्र में हमारे उनके मत में अनेक अनैक्य है तथापि उनके ग्रंथ से हम को अनेक सहायता मिली है. यह मुक्त कंठ से स्वीकार करना होगा । और कोई संशय नहीं कि उन्हीं के ग्रंथ ने हमारी रुचि को इस विषय के लिखने पर प्रबल किया है। वीरभूमि से प्राय : दस कोस दक्षिण अजयनद के उत्तर किन्दुबिल्वरे गाँव में श्रीजयदेव जी ने जन्म ग्रहण किया था। संभव है कि कन्नौज से आए हुए ब्राहमणों में से जयदेव जी का वंश भी हो । इन के पिता का नाम

  • चंद्रिका अभिनव किरणावली खंड ६ संख्या १० अप्रैल सन् १८७९ में पूर्वार्ध छपा ।

१. अजयनद भागीरथी का करद है । यह भागलपुर जिला के दक्षिण से निकल कर सांताल परगने के दक्षिण भाग दक्षिण की ओर और फिर वर्दमान और वीरभूमि के जिले के बीच में से पश्चिम की ओर बह कर कटवा के पास भागीरधी से मिला है। (ज. च. बंगदेश विवरण) । २. किन्दुबिल्व वीरभूमि के मुख्य नगर सूरी से नौ कोस है । यहाँ श्रीराधा दामोदर जी की मूर्ति प्रतिष्ठित है। वैष्णवों का यह भी एक पवित्र क्षेत्र है 1 भारतेन्दु समग्र ६०४