पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६५

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मिन अंधियारी में तो भय भारी मुख-सांस नाहि राय 1 इत नवखड सोसमहला उत दुगनिस बिंब परे । इत प्रकाश में मिल अलबेली एक भई चमकाय । इत बादलन लपेटी झालर भावापोर झलार । जगमगे बसन कनक-मनि-भूपन एक भए मर भाय । उत्त सारी फोरन सो मुक्ता मानिक-हीर झरे। "हरीचंद मिलि के वियोग में दीनो तुरत नस्ताय ।२१ जमुना-जाण प्रतिधिध सुखायो जल-एथि निर्माण खहरे । दिपति दिव्य दीपावली, आधु दीपति दिव्य दीपावली । 'हरीचद' मरा बंद मिलो सब रविससि गरव हरे १५ मनु तम-नाश करन को प्रगटी कश्यप-सुत-बसायली। आबु सकेनन दीपक बारे मनु ब्रजमंडण-कृष्ण चंद्रमा तहं तारन की मंडली । निकट जानि गोवदन घटियाँ अपने हाथ संवारे । जीतन को मनु राहु-सेन को अति सुधरन किरनावली। किए प्रकासित गहवर गिरि थल कुंज पुज ब्रज सारे । विगत भई सब रैनि-कालिमा सोभा लागति है भली । 'हरीचंद' अपनी प्यारी की बाट निहारत प्यारे ।१६ "हरीचंद' मन रतन-रासि की अरी तू हठि चलि प्यारी दीप मंडल तें उम्पल ज्योति जुगावली ।२२ नेकु चलु पिय पै गहि प्यारी । शोभा हरित। देखु करी तेरे हित कैसी मोहन आजु तयारी । तेरे मुख-प्रकास दीपक-गन मंद दिखाई देत । पड़े पाँबड़े मग मखमल के दल गुलाब रुचिकारी । मंद पर आभा सत्र मेटी झिलमिलि भीने सेत । | छिरक्यो नीर गुलाब अतर मृगमद चंदन घनसारी ।। 'हरीचद तू इरि पैठि के कर त्योहार सहेत ।१७ परदे पर झालरे झमके तने चितान सुतारी । फरश गलीचन को अति राजत कोमल बहुरंग डारी । कषिन सो साँचेहि चूक परी।। धरे साज दिग अतर पान मधु फूल-माल जला झारी । दीप-सिखा की उपमा जिन मुलि प्यारी हेत धरी । लगी मिठाई रासि दुई दिसि दीपक परे कतारी । दाहत यह अंग जुड़ायति वह चंचल थिर येह । बिछी पलंग पय-फेनु मैन-सम पास परयो चिकारी। | वह निज प्रेमिन परम दुखत यह सदा सुखद पिय-देह । पास साब पालन के मोहत कई मनन सवारी। या में पूम स्वच्छ अति ही यह रैनि दिना इक रास । ठौर ठौर आरसी लगाई दनी अति कार डारी । बह परिधिन्न बान-बस यह निज-बस सर्वत्र प्रकास। प्रति खाटन हारायति माला फूल बसन को धारी । वह सनेह-आधीन और यह है सनेह भरपूर प्रति भाले सुगंध सों पूरे पान मिठाई डारी । 'हरीचद दीपक प्यारी को नहिं कोउ विधि सम नूर १८ जहं तहँ श्रदय किये सब सखियाँ ग्राही साज संचारी । जमुना-जल बढ़ी दीप-छवि भारी । मुरछल चघर रूमाल अहानी पीकचान नै बारी । प्रांतावित प्रतिविध लहरि प्रति तह राजत थिय प्यारी । चौकि चौकि पिय उठत विना नुय श्रगम संक बनधारी। तसेही नभतर ताराल तरल वायु गुन होई । 'हरीचंद प्रीतम गर लगिके करु त्योहार दिवारी २३ तैसेहि उठत गगन गुब्बारे छुटत दारूति जोई । रच्यो यह तेरेहि हित त्योहार । अनि नीर आकास प्रकामिन दीपहि दीप लखाई। दीप-दिवारी युक्ति निकारी तय हिन नंदकुमार । मनु प्रजमंडल ज्योति-रूपता अपनी प्रगट दिखाई । तव महालन की सुरांत करन हित हठरी आचर बनाई। मुख प्रकास रजित सबही थन सोभा नहि कहि गई। नुव मुख-चंद्रप्रकाश लखन हित दीपावली सुहाई । 'हरीनंद' राधे मनमोहन रहे त्योहार मनाई ॥१२ हाट लगाई तुव भावन हित. और न कह संदेह । 'हरीचंद विहरे किन भुज भार प्रीतम सों करि नेह।२४ | नुव पिनु पिय को घर अंधियारो कार्तिक में साँझ के गाइबे को पद जप चहूँ दिसि प्राट श्यास मद बिरतानला संचारो । सांचहि दीपसिखा सी प्यारी । | कछु न लाखात र ताहि भनि व्याका दृग-झर लावत भारो। धूमकेश लन जगमगाति पति दीपति भई दिवारी । प्रिय प्रिय कहि प्रति कानन में ट्रेडि रहित घर सारो । स्वयं प्रकाश अकुंठ सुहाई पिनु असार छवि छाई । न इस बैठी बदन बनाए उत वह विकल विचारो। सदा एक रस नित्य अधिक यह वासों चाल जखाई । हरीचद उठि चल री प्यारी नाउ गरे पिय प्यारो ।२० भरत सुगधन अज कुंजन मग शीतल तन कर वारी । दीपन उलटी करी सहाय । प्रीतम-तन को बिरह मिटावत 'हरीचंद दुख जारी ।२५ चली गई पिय पास प्रगट मग काह न परी लखाय । SARAK tok कार्तिक स्नान २५