पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६५३

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गाना बहुत अच्छा जानते थे। कहते हैं कि गीतगोविंद को अष्टपदी और अष्टताली नाम से भी लोग पुकारते अनेक विद्वानों ने लिखा है गीतगोविंद विक्रमादित्य की सभा में गाया जाता था । किंतु यह कथा सर्वथा गीत-गोविंद निस्संदेह गाया जाता था। वरच जोनराज ने अपनी राजतरगिणी में लिखा है कि श्रीहर्ष जब क्रम सरोवर के निकट भ्रमण करते थे उन दिनों गीतगोविद उन की सभा में गाया जाता था । कहते हैं कि "प्रिये चारुशीले" इस अष्टपदी में "स्मरगरल खण्डनं मम शिरसि मण्डन" इस पद के आगे जयदेव जी की इच्छा हुई कि "देहि पदपल्लवमुदार ऐसा पद दें, किंतु प्रभु के विषय में ऐसा पद देने का उन का साहस नहीं पड़ा, इस से पुस्तक छोड़ कर आप स्नान करने चले गए । भक्तवत्सल, भक्तमनोरथपूरक भगवान इस समय स्नान से फिरते हुए जयदेव जी के वेश में घर में आए । प्रथम पद्मावती ने जो रसोई बनाई थी उस को भोजन किया. तदनंतर पुस्तक खोल कर 'देहि पदपल्लवमुदार" लिख कर शयन करने लगे। इतने में जयदेव जी आए तो देखा कि पतिप्राणा पद्यावती, जो बिना जयदेव जी को भोजन कराये जल भी नहीं पीती थी वह, भोजन कर रही है । जयदेव जी ने भोजन का कारण पूछा तो पद्मावती ने आश्चर्य-पूर्वक सब वृत्त कहा । इस पर जयदेव जी ने जाकर पुस्तक देखा तो देहि पदपल्लवमुदार" यह पद लिखा है । वह जान गए कि यह सब चरित्र उसी रसिकशिरोमणि भक्तवत्सल का है । इस से आनंद पुलकित हा कर पदमावती का थाली का अन्न खा कर अपने को कृतार्थ माना । कहते हैं कि पुरी के राजा सात्विकराय ने ईर्षापरवश होकर एक जयदेव जी को कविता की भाँति अपना भी गीतगोविंद बनाया था । इस झगड़े को निबटाने को कि कौन गीतगोविंद अच्छा है दोनों गीतगोविंदों को पंडितों ने जगन्नाथ जी के मंदिर में रखकर बंद कर दिया । जब यथा समय द्वार खुला तो लोगों ने देखा कि जयदेव जी का गीतगोविंद श्री जगन्नाथ जी के हृदय में लगा हुआ है और राजा का दूर पड़ा है । यह देखकर राजा आत्महत्या करने को तैयार हुआ । तब श्रीजगन्नाथ जी ने उसके संबोधन के वास्ते आज्ञा किया कि हम ने तेरा भी आंगीकार किया, शोच मत कर । गीतगोविंद अंगरेजी गद्य में सर विलियम जोन्स कृत, पद्य में आरनल्ड साहब कृत, लैटिन में लासिन कृत, जर्मन में रुकाट कृत, ऐसे ही अनेक भाषाओं में अनेक जन कृत अनुवादित हुआ है । हिंदी में इसके छंदोबद्ध तीन अनुवाद हैं । प्रथम राजा डालचन्द की आज्ञा से रायचन्द नागर कृत, द्वितीय अमृतसर के प्रसिद्ध भक्त स्वामी रलहरीदास कृत और तृतीय इस प्रबंध के लेखक हरिश्चंद्र कृत । इन अनुवादों के अतिरिक्त द्राविण और कार्णाटादि भाषाओं में इसके अपरापर अन्य अनक अनुवाद हैं। लोग कहते हैं कि जयदेव जी ने गीतगोविंद के अतिरिक्त एक ग्रंथ रतिमंजरी भी बनाया था, किंतु यह अमूलक है । गीतगोविंदकार की लेखनी से रतिमंजरी सा जघन्य काव्य निकले यह कभी संभव नहीं । एक गंगा की स्तुति में सुन्दर पद जयदेव जी का बनाया हुआ और मिलता है, वह उनका बनाया हुआ हो तो हो । इस भाँति अनेक सौ बरस हुए कि श्रीजयदेव जी इस पृथ्वी को छोड़ गए । किंतु अपनी कविता-बल से हमारे समाज में वह सादर आज भी विराजमान हैं । इनके स्मरण के हेतु केन्दुली गांव में अब तक मकर की संक्रांति को एक बड़ा भारी मेला होता है, जिसमें साठ सत्तर हजार वैष्णव एकत्र हो कर इनकी समाधि के चारो ओर संकीर्तन करते हैं। ६. पुष्पदंताचार्य और महिम्न यह स्तोत्र अब ऐसा प्रसिद्ध है कि आर्ष की भांति माना जाता है, वरच पुराणों में भी कहीं-कहीं इसका माहात्म्य मिलता है । एक प्रसंग है कि जब पुष्पदंत ने महिम्न बना के शिवजी को सुनाया तब शिवजी बड़े प्रसन्न हुए इससे पुष्पदंत को गर्व हुआ कि मैंने ऐसी अच्छी कविता किया कि शिवजी प्रसन्न हो गए । यह बात शिवजी ने जाना और अपने भूगी-गण से कहा कि मुंह तो खोलो । जब मुंगी ने मुँह खोला, तो पुष्पदंत ने देखा कि महिम्न के बत्तीसो श्लोक भृगी के बत्तीसो दाँत में लिखे हैं । इससे यह बात शिवजी ने प्रगट किया कि ये चरितावली ६०९