पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६५४

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श्लोक तुमने नहीं बनाए हैं ।वरंच यह तो हमारी अनादि स्तुति-श्लोक है । यह बात प्रसिद्ध है कि पुष्पदंत जब शाप से ब्राहमण हुआ था तब यह स्तोत्र बनाया है और ऐसी ही अनेक आख्यायिका हैं । अब वह पुष्पदंत कौन है और कब वह ब्राहमण हुआ इसका विचार करते हैं । कथासरित्सागर में एक पहिला ही प्रसंग है, जिससे यह प्रसंग बहुत स्पष्ट होता है । उस में लिखते हैं कि पार्वती जी का मान छुड़ाने को शिवजी ने अनेक विचित्र इतिहास कहे और उस समय नंदी को आज्ञा दी थी कि कोई भीतर न आवै, परंतु पुष्पदंत गण ने योगबल से नंदी से छिप कर भीतर जा कर वह सब कथा सुनी और अपनी स्त्री जया से कही और जया ने फिर पार्वती से कही । यह सुन कर पार्वती ने बड़ा क्रोध किया और पुष्पदंत और उस के मित्र माल्यवान् को शाप दिया कि दोनों मृत्युलोक में जन्म लो । फिर जब उन सबों ने पार्वती को बहुत मनाया तब पार्वती ने कहा कि अच्छा विंध्याचल में सुप्रतीक नाम यक्ष काणभुति पिचाश हुआ हं उसको दख कर पुष्पदन जब यह सब कथा कहेगा तब दोष दूर होगा और काणभूति से जब माल्यवान सुनेगा तब शाप से छूटेगा । वही पुष्पदंत वररुचि नामक कवि कौशांबी में हुआ और सुप्रतिष्ठ नगर में माल्यवान् गुणाढ्य कवि हुआ । यथा - अवदच्चन्द्रमौलिः कौशाम्बीत्यस्तियामहानगरी । तस्यां सपुष्पदंतो वररुचि नामा प्रिये जातः ।।१ ।। अन्यश्च माल्यवानपि नगरे सुप्रतिष्ठाख्ये। जातो गुणाढ्य नामा देवितयोरेषवृत्तान्तः ।।२ ।।" कौशांबी नगरी में सोमदत्त व अग्निशिख नामा ब्राहमण की स्त्री बसुदत्ता से वररुचि का जन्म हुआ और पिता छोटे ही पन में मर गया, इस से माता ने बड़े कष्ट से इस का पालन किया । यह छोटे ही पन में ऐसा श्रुतिधर था कि एक बेर जो सुनता वा जो कला देखता कंठ कर लेता और जान जाता । एक समय बेतसपुर के देवस्वामी और कदंबक नामा ब्राहमण के पुत्र इंद्रदत्त और व्याड़ि इसके घर में आए । वहाँ इन दोनों ने वररुचि को एकश्रुतिघर सुन के प्राति शांख्य पढ्न और वररुचि ने उन दोनों को वह ज्यों का त्यों सुना दिया और वररुचि के पिता का मित्र भवानंदर नामक नट उस रात्रि को कहीं अभिनय करता था । वह देख कर वररुचि ने अपने माता के सामने ज्यौं का त्यौं फिर कर दिखाया । उन दोनों ब्राहमणों को इसकी एकश्रुतिघरता से बड़ी प्रसन्नता हुई, क्योंकि जब इन दोनों ने विद्या के हेतु तक किया था तब इन को वर मिला था कि पाटलिपुत्र में वर्ष नामक उपाध्याय से सब विद्या पाओगे । वर्ष, उपवर्ष यह दो भाई शंकर स्वामि ब्राहमण के पुत्र थे । उनमें उपवर्ष पंडित और धनी था और वर्ष मूर्ख और दरिद्री था । उपवर्ष की स्त्री से अनादर पा कर वर्ष ने विद्या के हेतु तप किया और स्कंद से सब विद्या पाई, परंतु स्कंद ने कहा था कि जो एक श्रुतिधर हो उसके सामने तुम अपनी विद्या प्रकाश करना । सो जब वर्ष के पास ये दोनों ब्राहमण गए तब उसकी स्त्री ने कहा कि एकनुतिधर कोई हो तो ये अपनी विद्या प्रकाश करें, अन्यथा न प्रकाश करेंगे । इसी से वे दोनों ब्राहमण वररुचि को एक श्रुतिधर पा कर बड़े प्रसन्न हुए । वररुचि की माता से उन दोनों ने सब वृत्तांत कह कर वररुचि को साथ लिया और फिर पाटिलपुत्र में आए, क्योंकि उसकी माता से भी आकाशवाणी ने कहा था कि तेरा पुत्र एकश्रुतिधर होगा और वर्ष से सब विद्या पढ़ेगा और व्याकरण का आचार्य होगा । वर्ष ने तब उन तीनों को विद्या पाया और बहुत प्रसन्न हुआ, क्योंकि वररुचि एकश्रुतिधर, व्याड़ि द्विश्रुतिधर और इंद्रदत्त त्रिश्रुतिधर था । वर्ष को नगर के लोग मूर्ख जानते थे, पर जब एकाएकी उस के विद्या का प्रकाश हुआ तो सब ब्राहमणवर्ग बड़े प्रसन्न हुए और नंद राजा ने भी बहुत सा धन वर्ष को दिया । फिर इन तीनों ने बड़ी विद्या पढ़ी और वररुचि ने उपवर्ष की कन्या उपकोषा से विवाह किया और उपकोषा अपने पतिव्रत और चरित्र से नंद की भगिनी हुई । वर्ष के एक पाणिनि * नामा मूर्ख शिष्य ने शिव जी से वर पाकर व्याकरण बनाया और जब वररुचि ने उससे वाद किया तो

राजा शिवप्रसाद यों लिखते हैं:-"समय के उलट फेर में हमारे पंडित लोग जो कुछ अपनी पंडिताई दिखलाते हैं, लिखने योग्य नहीं है । इसी एक बात से सोच लो कि जिस पंडित से पाणिनि वैय्याकरण का जमाना पूछोगे छूटते कहेगा कि सत्य युग में हुआ था । लाखों बरस बीते परंतु इस से इन्कान न करेगा कि कात्यायन की पतंजलि ने टीका लिखी और पतंजलि की व्यास ने । अब हेमचन्द्र अपने कोश में कात्यायन का भारतेन्दु समग्र ६१०