पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६५७

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और उसके समकालीन गोवद्धन इत्यादि कवियों को लक्ष्मण सेन की सभा के पंचरत्न मानते है । यह बात भी 20 असंभव है, क्योंकि पृथ्वीराज ग्यारहवे शतक में था और चद भी सभी था । तो जपचेष चंद सैकड़ों वर्ष पहिले निस्संदेह हुए हैं, क्योंकि चंद ने प्राचीन कषियों की गणना में बड़ी भक्ति से जयदेव जी का वर्णन किया है। हाँ, यदि लक्षाण सेन को पृथ्वीराज के पहिले मानो तो जयदेव उसकी सभा के पंडित हो सकते है, नहीं तो समझ लो कि आदर के हेतु इन कवियों का नाम लक्ष्मण सेन ने अपनी सभा में रक्या है । इससे चल सति कुंव की भाषा और अंगरेजी इतिहासवेत्ताओं का मत लेकर बंगालियों ने जयदेव का जो काल निर्णय किया है वह आप्रमाण है यह निश्चय हुआ और वृहत्कथा उस काल के भी पहिले बनी है यह भी सिद्धान्तित हुला । ७. श्री वल्लभाचार्य दोहा तम पाखंड हि हरत कर, जन मन जलज विकास। जपति अलौकिक रवि कोऊ, श्रति पथ करन प्रकाश जो लोग बहुत प्रसिद्ध है और जिन को लाखों मनुष्य सिर झुकाते हैं उनके जीवनचरित्र पढ़ने या सुनने की किसकी इच्छा न होगी । इस हेतु यहाँ पर श्री पल्लभाचार्य का जीवनचरित्र संक्षेप से लिखा जाता है। मंदराज हाते में सेलगदेश के आकधी जिले में कांकरवलिल गांव में भारद्वाज गोत्र, तेलंग प्राहमण जाति पंचावर यजुर्वेद, सैतिरीयशाखा, दीक्षित सोमबागी उपनाम, यज्ञनारायण भट्ट के प्रसिद्ध वंश से लक्ष्मण भट्ट जी की धर्मपत्नी इल्लमगास के गर्भ से चम्पारण्य में इनका जन्म हुआ । लक्ष्मण भट्ट जी के तीन पुत्र थे । बड़े रामकृष्ण भइ जी युवावस्था ही में संन्यस्त हो गये और केशव पुरी नाम से प्रसिद्ध हुए । भाले पूर्वोक्ताचार्य और छोटे रामचंद्र भट्ट जी. जिन के कृष्णकुतूहल, गोपाल शीला इत्यादि ग्रंथ है । इन्होंने अपने नाना की प्रति पाई थी, परन्तु विवाह न करके अपना सब जेषन अयोध्या में बिताया । लक्ष्मण भट्ट जी अपने घर के खान पान से बहुत दुखी थे । वे जब काशी में अपने जाति के प्राहमणों का सत्कार करने आये तो मार्ग में चितिया के इलाके में चौरा गांव के पास चम्पारण्य में संवा १५३५ वैसाख बढी ११. * आदित्यवार को मध्यान्ह समय आचार्य का जन्म हुआ । जब ये पांच वर्ष के हुए तब नेत सुदी १ के दिन अपने पिता से गायत्री उपदेश लिया और कृष्णास मेघन को उनी अष्टाक्षर मंत्र का उपदेश करके प्रथम वैष्णव किया । उसी साल असार मुदी ८ को काशी के प्रसिद्ध पडित माधवानंद तीर्थ विदण्टी से विद्याध्ययन किया और छोटेपन ही में पत्राकाम्यान प्रथ कर के विश्वनाथ के दरवाजे पर लगा दिया और डॉट्री पीट कर काशी के पडितों से पहला शास्त्रार्थ किया । जब इन के पिता काशी से चले तो लक्ष्मणघाना जी में उनका देखत हुन । उनकी क्रियानिक के पीछे आचार्य पृथ्वी परिक्रमा को चले और विद्यानगर में जाकर कृष्णदेव राजा की सभा में राब पॉडलों को जीत कर आचार्य पद पाया । संधन १५४८ के वैशाह बदी २ को ब्रामचर्य धर्म से पहिली पृथ्वी परिक्रमा करने वाले और पढरपुर, त्र्यंबक, उज्जैन होते हुए पूर्व आए और चार महीने श्रीनवन में रह कर श्रीमदभागवत का पारायण किया और फिर सोरों, अयोध्या पो नैमिषारण्य रोते हुए काशी आए । राह में जो पंडित मिलते उनसे शास्त्रार्थ करते और पैष्णव धर्म फैलाते थे। काशी जी से गया और जगन्नाथ जी होते हुए फिर दक्खिन चले गए और संवत १५५४ में अपना पहिला दिग्विजय समाप्त किया । दसरे दिग्विजय में वन में गोवद्धन पर्वत पर श्रीनाथ जी का स्वरूप प्रकट कर के उन की सेवा स्थापन किया और तीन पृथ्वी परिक्रमा कर के सारे भारतखट में वैष्णव मत फैला कर वावन वर्ष की अवस्था में सवत १५८७ आषाढ़ सुदी २ को काशी ली में लीला में प्राप्त भए । इनके दो पुर बड़े श्री गोपीनाथ जी. छोटे श्री विठ्ठलनाथ जी । गोपीनाथ जी के पुत्र श्री पुरुषोत्तम जी, पर उनके आगे पेश नहीं श्री विलानाथ जी के सात पुत्र, जिनमें बड़े गिरधर जी ओर छोटे पुत्र गदुनाथ जी का वश अब तक वर्तमान है।

  • वल्लभ दिग्विजय में लिखा है : संपत शाके १४४० वैशाख मास कृष्णपक्ष ११ रषिषार मध्याइन । एक पद श्री
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चरितावली ६१३