पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भोमन पदों को इकट्ठा करके उस ग्रंथ का नाम सूरसागर रखा । जब यह बृद्ध हो गए थे और श्री गोकुल में रहा करते थे, धीरे-धीरे इन के गुण शाहनशाह अकबर के कानों तक पहुंचे । उस समय ये अत्यंत वृद्ध थे और बादशाह ने इनको बुलावा भेजा और गाने की आज्ञा किया । तब इनने यह भवन बनाकर गाया । बिहाग दो०-- मन मन रेकरि माधो सो प्रीति। फिर इन से कहा गया कि कुछ सहनशाह का गुणानुवाद गाइए। उस पर इन्होने यह पद गाया। केदारा नाहिन रहयौ मन में ठौर। नंद-नंदन अछत कैसे आनिये उर और ॥१॥ चलत चितवत दिवस जागत सुपन सोवत राति । हृदय ते वह मदन मूरति छिनु न इत उत जाति ॥२॥ कहत कथा अनेक ऊधो लोग लोभ दिखाइ। कहा करौ चित प्रेम पूरन घट न सिंधु समाइ ॥३॥ श्यामगात सरोज आनन ललित गति मृदु हास। 'सूर' ऐसे दरस कारन मरत लोचन खास ॥४॥ फिर संवत् १६२० के लगभग श्रीगोकुल में इन्होंने इस शरीर को त्याग किया । सूरदास जी ने अंत समय में यह पद किया था । खंजन-नैन रूप-रस माते। अतिसय चारु चपल अनियारे पल पिंजरा न समाते॥ चलि चलि जात निकट श्रवनन के उलटि फिरत ताटंक फॅदाले। अंजन गुन अटके नातरु अब उड़ि जाते॥ समुद्र भयो सूर को, सीप भये चख लाल। हरि मुक्ताहल परतहीं, मूंदि गए तत् काल॥ संसार में जो लाग भाषा काव्य समझते होंगे व सूरदास जी को अवश्य जानत होंगे और उसी तरह जो लोग थोड़े बहुत भी वैष्णव होंगे वे उनका थोड़ा बहुत जीवन-चरित्र अवश्य जानते होंग । चौरासी वाता. उस की टीका, भक्तमाल और उस की टीकाओं में इनका जीवन विवृत किया है । इन्हीं प्रथों के अनुसार संसार को और हम को भी विश्वास था कि य सारस्वत ब्राह्मण हैं, इनके पिता का नाम रामदास, इनके माता पिता दरिदी थे. ये गऊघाट पर रहते थे. इत्यादि । अब सुनिए एक पुस्तक सूरदास जी के दृष्टिकूट पर टीका (टीका भी संभव होता है इन्हीं की, क्योंकि टीका में जहाँ अलंकारा के लक्षण दिए हैं। वह दोहे और चौपाई भी सूर नाम से अंकित हैं। मिली है । इस पुस्तक में ११६ दृष्टिकूट के पद अलंकार और नायिका के क्रम से हैं और उन का स्पष्ट अर्थ और उनके अलकार इत्यादि सब लिख हैं । इस पुस्तक के अंत में एक पद में कवि ने अपना जीवनचरित्र दिया है. जो नीचे प्रकाश किया जाता है। अब इस का दख सूरदास जी के जीवनचरित्र और वंश का हम दूसरी ही दृष्टि से देखने लगे । वह लिखते हैं कि 'प्रथजगात' पार्थज गोत्र में इन के मूल पुरुष ब्रह्मराव हुए जो बड़े सिद्ध और देवप्रसाद-लब्ध थे । इन के वंश में भौचद हुआ । पृथ्वीराज ने जिस का ज्वाला देश दिया ; उस के चार पुत्र, जिन में पहिला राजा हुआ । दूसरा गुणचंद्र । उस का पुत्र सीलाचंद्र उसका १. 'प्रय जगात' इस जाति वा गोत्र के सारस्वत ब्राहण सुनने में नहीं आए । पंडित राधाकृष्ण संगृहीत सारस्वत ब्राणों की जाति माला में 'प्रथ जगात', 'प्रथ' वा 'जगात' नाम के कोई सारस्वत ब्रालाण नहीं होते 1 जगा वा जगातिआ तो भाट को कहते हैं। २. ब्रमराव नाम से भी संदेह होता है कि यह पुरुष या तो राजा रहा हो या भाट । ३. 'भो' का शब्द हुआ अर्थ में लीजिए तो केवल चंद्र नाम था । चंद्र नाम का एक कवि पृथ्वीराज की सभा में था! आश्चर्य !!! ४. पृथ्वीराज का काल सन् ११७६ । भारतेन्दु समग्र ६१६