पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तक सहायता करते थे और इन के सत्यप्रियता निष्पक्षपातिता, दोनों पर दया, मुकद्दमों के सूक्ष्म भावार्थों की समुझ और कार्य में चातुर्य इत्यादि गुण हाकिमों से लेकर चपरासियों तक विदित हो गए थे । और जज्ज लोग इन को विवाद की जड़ समझने और समझ ने से बहुत ही प्यार करते थे । विशेष कर के आनरेबुल पंडित शंभूनाथ अपनी वकीली से लेकर जज्ज होने की अवस्था तक इन्हें बहुत प्यार करते थे । ठकुरानी दासी के कर- संबंधी बड़े मुकदमे में १५ जज्जों के फुलबेंच के सामने मिस्टर डाइन ऐसे प्रसिद्ध वकील और अनेक अंगरेज वकीलों को सात दिन तक अनवरत वाग्धारा-वर्णण से और कानून संबंधी सूक्ष्म वातों की झर से परास्त कर के हिन्दू वकीलो में इन्होंने चिरकीर्ति का ध्वज स्थापित किया और गर्वनमेंट की इन पर विशेष दृष्टि से उस समय में जब कि इन की आमदनी एक लाख रुपये साल की थी, ये गवर्नमेंट के मुख्य वकील हुए । और पंडित शंभूनाथ के मृत्यु पर सन् १८६७ में ये बिना इच्छा किया भी जस्टिस पीकाक की प्रार्थनानुसार गवर्नमेंट से प्रधान जज्ज नियत किये गये और विचारासन पर बैठ कर जैसी योग्यता और शुद्ध चिन से सावधान होकर उन्होंने काम किया वह हिंदसमाज में चिरस्मरणीय है । जस्टिस पीकाक के अतिरिक्त कोई जज्ज इन की योग्यता के तुल्य नहीं गिने जाते थे और एक व्याभचारिणी के दाय भाग के बड़े मुकदमे के समय बीमार होकर सात वरस सज्जी का काम करके अपने ग्राम में अपनी वृता माता, तीसरी स्त्री, दो बालक और दो विवाहिता बालिका को छोड़ कर ये भारतवर्ष को शून्य करके अपनी ४३ वर्ष की अवस्था में ता. २५ फेब्रवरी सन् १८७४ बुध के दिन परलोक को सिधारे । १३. श्री राजाराम शास्त्री श्रीयुत पंडितवर राजाराम शास्त्री वेदर श्रीतादि विविध विद्यापारीण प्रीयुत गोविंदभट्ट कार्लेकर के तीन पुत्रों में कनिष्ठ थे । जब ये दस वर्ष के लगभग थे च इन के पितृचरण परलोक को सिधारे । फिर त्रिलोचन घाट पर एक ऋषितुल्य महातपस्वी श्रीयुत रानडोपनामक हरिशास्त्री विद्वान ब्राह्मण रहते थे. उन के पास इन्होंने अपनी तरुण अवस्था के प्रारंभ में काव्य और कौमुदी पढ़ कर आस्तिकनास्तिकों भयविध द्वादश दर्शनाचार्यवर्य परम मान्य जगद्विदितकीर्ति श्रीयुत दामोदर शास्त्री जी के पास तर्कशास्त्राध्ययन प्रारंभ किया । थोडे ही दिनों में इन की अतिलौकिक प्रतिभा देख कर इन को उक्त शास्त्री जी महाशय ने अपनी वृद्ध अवस्था के कारण पढ़ाने का आयास अपने से न हो सकेगा, जान कर श्रीमान् कैलास निवास परमानंदनिमग्न दिगंगनाविख्यात-यशोराशि प्रसिद्ध महा पण्डितवर्य श्रीयुत काशीनाथ शास्त्री जी के, जिन के नाम श्रवणमात्र के सहृदय पंडितवर समूह गद्गद होकर सिर डुलाते हैं, स्वाधीन कर दिया । और इन के प्रतिभा का अत्यंत वर्णन कर के कहा कि मैं एक रत्न आपको पारितोषिक देता हूँ जो आपके सुविस्तीर्ण शाखाकांडमंडित कुसुमचयाकीर्ण यशोवृक्ष को अपनी यशश्चन्द्रिका से सदा अम्लान और प्रकाशित रक्खेगा । फिर इन्होंने उक्त महाशय के पास व्याकरणादि विविध शास्त्र पढ़कर चित्रकूट में जाकर उत्तम उत्तम पंडितों के साथ विप्रतिपत्तियों में अत्युत्तम प्रतिष्ठा पाई और श्रीमंत विनायक राव साहेब ने बहुत सन्मान किया । फिर जब सांस्कृतादि विविध विद्या कलादि गुण-गण मंडित श्रीमान् जान म्यूर साहब की काशी में आप और पाठशाला में विविधि विद्या पारंगत पंडिततुल्य विद्यार्थियों की परीक्षा ली तब उक्त शास्त्री जी महाशय के विद्यार्थिगण में इन की अद्भुत प्रतिभा और अनेक शास्त्रोपस्थिति देख प्रसन्न होकर केवल इस अभिप्राय से कि ऐसे उत्तम पंडित-रत्न का अपने पास रहना यशस्कर है और आजमगढ़ के जिले में उक्त साहेब महाशय प्रादिवाक थे इस लिए कहीं कहीं हिंदू धर्म शास्त्र के अनुसार निर्णय करने के विमर्श में और उनकी बनाई हुई अनेक सुंदर सुंदर कविता के परिशोधन में सहायता के लिए इन को अपने साथ ले गए । उन के साथ चार पाँच वर्ष के लगभग रह कर ग्वालियर में गए । वहाँ बहुत से उत्तम उत्तम पंडितों के साथ शास्त्रार्थ में परम प्रतिष्ठा और राजा की ओर से अत्युत्तम सन्मान पूर्वक विदाई पाकर संवत् १९१२ के वर्ष में काशी आए । तब यद्यपि विधवोद्धाहशंकासमाधि अर्थात पुनर्विवाह खंडन श्रीमान् परम गुरु श्री काशीनाथ शास्त्री जी तैयार कर चुके थे तथापि उस को इन्होंने अपूर्व अपूर्व अनेक शंका और समाधानों से पुष्ट किया । इसी कारण उक्त शास्त्री जी महाराज ने अपने नाम के पहिले इन्हीं का नाम उस ग्रंथ पर लिख कर प्रसिद्ध किया । संवत १९१३ के वर्ष के अंत में श्रीमान् यशोमात्रा विशेष चरितावली ६२३