पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६७३

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ऐसा कर्म न करता । संपादक महाशय लिखते हैं कि ये दुष्ट प्राण से प्रतिष्ठा और धर्म को विशेष मानते हैं इस से ऐसा करना चाहिये जिस में इन दुष्टों का मुख भंग हो और धर्म और प्रतिष्ठा दोनों को हानि पहुँचे । वह लिखते हैं (और बहुत ठीक लिखते हैं, अवश्य ऐसा ही वरन इस से बढ़ कर होना चाहिये) कि उस के प्राण अभी न लिये जायें और उसे खाने को वह वस्तु मिलै जो "हराम" है और वस्त्र के स्थान पर उस को सूअर के चर्म की टोपी और कुरता पहिनाया जाय । यावच्छक्ति उस को दुःख और अनादर दिया जाय । ऐसे नीच के विषय में जितनी निईयता की जाय सब थोड़ी है और ऐसे समय हमलोगों को कानून छप्पर पर रखना चाहिए और उस को भरपूर दुःख देना चाहिये । श्रीमान् लार्ड म्यौ स्वर्गवासी के मरने का शोक जैसा विद्वानों की मंडली में हुआ वैसा सर्वसाधारण में नहीं हुआ । इस में कोई सदेह नहीं कि एक बेर जिस ने यह समाचार सुना घबड़ा गया, पर तादृश लोग शोकाक्रात न हो गए इस का मुख्य कारण यह है कि लोगों में राजभक्ति नहीं है । निस्संदेह किसी समय में हिंदुस्तान के लोग ऐसे राजभक्त थे कि राजा को साक्षात ईश्वर की भांति मानते और पूजते थे, परंतु मुसल्मानों के अत्याचार से यह राजभक्ति हिंदुओं से निकल गई । राजभक्ति क्या इन दुष्टों के पीछे सभी कुछ निकल गया; विद्या ही का वैसा आदर न रहा । अब हिंदुस्तान में तीन बात का बड़ा घाटा है - वह यह है कि लोग विद्या, स्त्री, राजा का तादृश स्वरूप ज्ञान पूर्वक आदर नहीं करते । विद्या को केवल एक जीविका को वस्तु समझते हैं । वैसे ही स्त्री को केवल काम शांत्यर्थ वा घर की सेवा करने वाली मात्र जानते है । उसी भाँति राजा को भी केवल इतना जानते हैं कि वह मुझ से बलवान है और हम उस के वश में है । राजा का और अपना संबंध नहीं जानते और यह नहीं समझते कि भगवान की ओर से वह हम लोगों के सुख दुख का साथी नियत हुआ है, इससे हम भी उस के सुख दुःख के साथी हैं। हम आशा रखते हैं कि श्रीमान गवर्नरजेनरल बहादुर के अकाल मृत्यु का समाचार अब सब को भली भांति पहुँच गया । हम लोगों ने जिस समय यह संवाद सुना शरीर शिथिलेंद्रिय और वाक्य-शुन्य हो गया । यदि कोई आकर कहे कि चंद्रमा में आग लगी है तो कभी विश्वास न होगा । उसी प्रकार भरतखंड के उपराज का एक कैदी के हाथ से मारा जाना किसी समय में एकाएकी ग्राहय नहीं हो सकता । हाय ! देश को कैसा दुःख हुआ ! अभी वे ब्रह्म देश की यात्रा कर के अंडमन्स नाम बीपस्थित दुखियों के सहायार्थ उपाय करने को जाते थे और वहाँ ऐसी घटना उपस्थित हुई । चीफ जस्टिस नारमन का मरण भुलने न पाया और एक उस से भी विशेष उपद्रव हुआ और फिर भी मुसल्मान के हाथ से । यद्यपि कई अंग्रेजी समाचार पत्र संपादकों ने लिखा है कि जो कारण नारमन साहेब के मारने का था सो श्रीमान के घात का कारण नहीं हो सकता, परंतु इस में हमारी सम्मति नहीं है । क्योंकि यदि शेरअली के मन यह बात पहिले से ठनी न होती तो वह ऐसे निर्जन स्थान में छुरी ले कर छिपा क्यों बैठा रहता : फिर एक दूसरे कैदी के "इजहार" से स्पष्ट ज्ञात होता है । जिस समय औरअली ने अब्दुल्ला के और नारमन साहेब के मरण का समाचार सुना कैसा प्रसन्न हुआ और लोगों का निमंत्रण किया । यदि वह उस वर्ग का न होता जो कि तन मन से चाहते हैं कि सरकार "काफिर" है इस लिये उस के बड़े बड़े अधिकारियों के मारने से बड़ा "सवाब" होता है । प्रसन्नता और निमंत्रण का क्या कारण था ? फिर वह स्वतः कहता है कि अपने मरण के पूर्व मैं एक बात कहूँगा । वह कौन सी बात हो सकती है ! इन सब विषयों को भली भाँति दृढ़ कर के तब उस को फाँसी देना उचित है। १५. लार्ड लारेन्स सन् १८११ ई. ४ मार्च को उक्त महात्मा ने जन्म ग्रहण किया था । उन्होंने पहिले कुछ दिन वर्ड लण्डन डेरी के काल कालिज में शिक्षा लाभ की थी, बाद उस के हेलिवार कालिज में पढ़ने लगे। १८२९ ई. में सिविलियन हो कर भारतवर्ष में आए । १८३१ ई. में दिल्ली के रेजिडेण्ट और चीफ कमिश्नर के सहकारी हुए । १८३२ ई. में प्रतिनिधि मजिस्टर और कलक्टर हुए । १८३४ ई. में पानीपत के प्रतिनिधि भजिस्टर हो के गए । दो बरस के बाद गुड़गांव के एजेण्ट मजिस्टर और डिपटी कलक्टर हुए । कई एक वर्षों के बाद दिल्ली के मजिस्टर हुए । उस समय यहाँ के गवर्नरजेनरल सर हेनरी हारडिंग थे। उन्हों ने इन की चमत्कार राजनीति देख कर इन को शतद्गु तीरस्थ प्रदेशों का कमिश्नर कर के भेज दिया । १८४८ ई. में लारेन्स लाहौर चरितावली ६२९