पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६८४

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नहीं पीता था । यह उस की सब क्रिया हिंदुओं को वश करने को एक महामोहनास्त्र थीं । इसी से उसको परमेश्वर का अवतार तक कहने में हिंदुओं ने संकोच न किया । उसको लोग जगद्गुरु पुकारते थे, यह आगे वाले महाराज जसवंत सिंह के पत्र से प्रकट होगा । इसके विरुद्ध औरंगजेब से हिंदुओ का जी कैसा दुःखी था. और उस समय राज्य की भी कैसी अवनति थी यह भी इस पत्र से प्रकट हो जायगा, हम विशेष क्या लिखें विदित हो कि इस पत्र के लेखक महाराज जसवंत सिंह जोधपुर के महाराज गजसिंह के द्वितीय पुत्र थे । सन् १६३८ में गजसिंह युद्ध में मारे गए । अपने बड़े पुत्र अमर सिंह को अति क्रूर और प्रजापीड़क समझ कर गज सिंह ने त्याग कर दिया । यही अमर सिंह फिर शाहजहाँ के दर्बार में रहा और वहाँ भी अपनी उद्धतता से एक दिन काम पर हाजिर नहीं हुआ । इस पर शाहजहाँ ने उस पर जुर्माना किया । जुर्माना अदा कराने को सलाबत खाँ खजानची को भेजा । उस का भी अमर सिंह ने निरादर किया । इस पर बादशाह ने उस को दरबार में बुला मेजा । यह अति क्रोधावेश में एक कटार लिए हुए दर्बार में निर्भय चला गया । बादशाह को क्रोधित देख कर रोषानल और भी भड़का । पहले सलाबत का प्राण संहार किया फिर वही शस्त्र बादशाह पर चलाया । खंभे में लग कर कटार गिर पड़ी, किंतु उस आघात में बल इतना था कि खंभे का दो अंगुल पत्थर टूट गया । दर्बार में चारों ओर हाहाकार हो गया । पांच बड़े बड़े मोगल सर्दारों को अमर ने और मारा । अंत में उसको उसका साला अर्जुन गोरा (बूंदी का राजकुमार) पकड़ने चला, तो उससे लड़ा और उसी की तलवार से गिरा भी । अब तक तख्त पर लहू की छींट और टूटा हुआ खंभा उस के वीर दर्प का चिन्ह आगरे के किले में विद्यमान है । लाल किले का दरवाजा, जिससे अमर सिंह आया था, बुखारा दरवाजा कहलाता था ; उस दिन से अमर फाटक कहलाता है । उसके सरदार चंपावत गोती और कंपावत गोती भी दरबार में अपनी निज सैन्य लेकर घुस आए और बहुत से मुगलों को मार कर मारे गए । अमर सिंह की स्त्री बूंदी की राजकुमारी पति का देह लेने को उसी हल्ले में अपने योदाओं को लिये किले में चली आई और देह ले गई और डेरे में जा कर सती हो गई । इस घटना के वर्णन में राजपुताने में कई ग्रंथ, ख्याल आदि बने है और अब तक इस लीला को नट, सुथरेसाही, जोगी, भवैये, गवैये गाया करते हैं । अथ पत्र "सब प्रकार की स्तुति सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर को उचित है और आप की महिमा भी स्तुति करने के योग्य है, जो चंद्र और सूर्य की भाँति चमकती है । यद्यपि मैंने आज कल अपने को आप के हाथ से अलग कर लिया है किन्तु आपकी जो सेवा हो उसको मैं सदा चित्त से करने को उद्यत हूँ । मेरी सदा इच्छा रहती है कि हिंदुस्तान के बादशाह रईस मिर्जा राजे और राय लोग यथा ईरान तूरान रूम और शाम के सरदार लोग और सातों बादशाहत के निवासी और वे सब यात्री जो जल या थल के मार्ग से यात्रा करते हैं मेरी सेवा से उपकार लाभ करें। यह इच्छा मेरी ऐसी उत्तम है कि जिसमें आप कोई दोष नहीं देख सकते । मैंने पूर्वकाल में जो कुछ आप की सेवा की है, उस पर ध्यान कर के मुझ का अति उचित जान पड़ता है कि मैं नीचे लिखी हुइ बातों पर आप का ध्यान दिलाऊँ, जिसमें राजा और प्रजा दोनों की भलाई है । मुझ को यह समाचार मिला है कि आप ने मुझ शुभचिंतक के विरुद्ध एक सैना नियत की है और मैंने यह भी सुना है कि ऐसी सैनाओं के नियत होने से आपका खजाना जो खाली हो गया है उस को पूरा करने को आप ने नाना प्रकार के कर भी लगाए हैं। आप के परदादा मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर ने, जिनका सिंहासन अब स्वर्ग में है, इस बड़े राज्य को २२ बरस तक ऐसी सावधानी और उत्तमता से चलाया । कि सब जाति के लोगों ने उससे सुख और आनंद उठाया । क्या ईसाई, क्या मूसाई, क्या दाऊदी, क्या मुसल्मान, क्या ब्राह्मण, क्या नास्तिक सब ने उनके १. आनि के सलाबत खां जोर के जनाई बात तोरि धर पंजर करेजे जाय करकी । दिल्लीपति नाह के चरन चलबे को मए गाज्यो राजसिंह को सुनी है बात बरकी ।। कहै 'बनवारी' बादशाह के तखत पास फरकि फरकि लोथ लोथन सी अरकी । हिंदुन की हड सह राखी ते अमर सिंह कर की बड़ाई के बड़ाई जमघर की ।। भारतेन्दु समग्र ६४०