पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६९४

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WAS के मैरव बना दिये और कुरान पढ़ने की चौकियों पर व्यासों ने कमा यांची, तो यह क्या असम्भावित है। कर्दमेश्वर का मंदिर बहुत ही प्राचीन है और उस के शिखर पर बहुत से चित्र बने है जिनमें कई एक हिंदुओं के देवताओं के हैं, पर अनेक ऐसे विचित्र देव और देवी बनी है जिसका ध्यान दिंद्र शास्त्र में कहीं नहीं मितला अतएष कर्दमेश्वर महादेव जी का राज्य उस मंदिर पर कच से हुआ यह निश्चय नहीं है और पलथी मारे हुए जो कर्दमजी की श्रीमूर्ति है वह तो निस्संदेह कुछ और ही है और इसके निश्चय के हेतु उस मंदिर के अस पास के जैन संड प्रमाण है और उसी गांव में आगे कूप के पास दाहिने हाथ एक चौतरा है उस पर वैसी ही ठीक किसी जेनाचार्य की मूर्ति पलथी मारे खडित रक्खी है देख लीजिए और उस के लवे कान उस का जेनत्य प्रमाण करते हैं । अब कहिए वह तो कर्दम ऋषि हैं ये कौन हैं कपिलदेष जी है ? ऐसे ही पंचक्रोशी के सारे मार्ग में परन काशी के आस पास के जनेक गांव में सुदर सुंदर शिल्पविद्या से विरचित जैन खंड पृथ्वी के नीचे और ऊपर पड़े है । कर्दमेश्वर का सरोवर श्रीमती रान भवानी का बनाया है और उस पर यह लोक लिखा है। "शाके गोत्रतुरंभपतिमिते श्रीमतभवानीनृपा गौड़ाख्यानमहीमहेन्द्रबनिता निष्कईमं काईमं । कुंड ग्राजसुखंडमंडिततटं काश्यां व्यधावावरात श्रीतारातनया पुरांतकपर प्रीत्यै विमुक्तै नृणा। अर्थ-शाके १६७७ में अपनी कन्या श्रीतारा देवी के स्मरणार्थ यह कर्दम कुंड बंगाले की महारानी श्रीभवानी ने बनाया । इन महारानी की कीर्ति ऐसी ही सब स्थानों में उज्ज्वल और प्रसिद्ध है और राजा चंदनाच राय (उनके प्रपौत्र) मानो उस पुण्य के फल है । मीमचडी के मार्ग में भी ऐसे ही अनेक चिन्ह है और भटाक्षी नामक ग्राम में एक बड़ा पुराना कोट उलय हुआ पड़ा है और पंचक्रोशी करानेवाले उसके नीचे उसी के ईटों से छोटे-२ घर बनाते है और इस में पुण्य समझते हैं । सम्भावना है कि यहाँ कोई छोटी राजसी रही हो. क्योंकि काशी के चारों ओर ऐसी छोटी छोटी कई राजसियाँ थी जैसे श्राशापुर । काशीखंड में आशापुर को एक बड़ा नगर कर के लिसा है पर अब तो गाँव मात्र बच गया है । भीमचंडी का कुंड मी श्रीमती रानी भवानी का बनाया है और उस में यह स्तोक लिखा हुआ है। शाके कालाद्रिभूपे गतविलकमलं गौड़राजेन्द्रपत्नी गन्धर्वाम्मोनिधिसमखाननं स्वर्गसोपानजुष्टं। चक्रे राशी भवानी सुकृतिमतिकृतिर्मीमचंडी सकाशे काश्पामस्यासुकीर्तिस्मुर पतिसमितौगीयतेनारदाथैः । अर्थात् शाके १६७६ में रानी भवानी ने यह सरोवर अनाया तो इस लेख से ११८ का प्राचीन यह सरोवर है । इससे प्राचीन भी कुछ चिन्ह है, पर अत्यन्त प्राचीन नहीं । देहली विनायक जो मुख्य काशी की सीमा है वही ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ कोई भी प्राचीन चिन्ह शेष नहीं है । यहाँ के मंदिर और सरोवर सब एक नागर के बनाये हुए हैं जिसे अभी केवल सत्तर अस्सी घरस हुए । पर इतने ही समय में वह बहुत टूट गए है । काशी के कतिपय पंडित कहते हैं कि प्राचीन देहली विनायक वहाँ से कोसो दूर हैं । अतएव पंचक्रोशी का प्रचलित मार्ग ही अशुद्ध है और यह संभावना भी है, क्योंकि सिंधुसागर तीर्थ का बहुत सा भाग इस मार्ग में बाम भाग पड़ता है, पर प्राचीन मार्ग की सड़क खेतवालों ने संपूर्ण नष्ट कर डाली है ? रामेश्वर में श्री रानी भवानी की धार्मशाला और उद्यान है, परंतु रामेश्वर के कोस भर उधर बीच मार्ग ही में एक बड़ा प्राचीन मंदिर खंड पड़ा है। बीच में शिषपुर एक पिनाम है और वहाँ पांच पांडव है, परंतु वह विधाम इत्यादि कोई काशीशार लिखित नहीं है । सब साहो गोपाल दास के भाई भवानी दास साहो के बनाए हुए हैं और अब वह एक ऐसा विनाम हो गया है कि सब काशी के बधु वहीं पंचक्रोशी वालों से मिलने जाते है । कपिलधारा मानो जैनों की राजधानी है । कारण ऐसा अनुमान होता है कि प्राचीन काल में काशी उधर ही बसती थी, क्योंकि सारनाथ वहाँ से पास ही है और में यहां से कई जैन मूर्ति के सिर उठा लाया हूँ । ऐसी भी जनअति है कि महादेवभट्ट नामक Mar भारतेन्दु समग्न ६५०