पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६९६

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घंटानिनादोज्जलं। रम्यं दृष्टिहरं शिलोच्चाय॥ ध्वज चामरं सुकृति नाश्रेयो ऽर्थिना कारितं इस लेख के उपसंहार काल में मणिकर्णिका घाट का अवशिष्ट वर्णन करता हूँ। अब जो सांप्रत्त घाट वर्तमान है वह अहल्याबाई का बनवाया हुआ है और दो बड़े बड़े शिवालय भी घाट की सीमा पर उन्हीं के बनाए हैं और उन पर ये श्लोक लिखे हैं। पृथक्॥ श्रीमान होलकरोपाख्यख्यातो राजन्यदर्पहा। मल्लारिरावनामा भूत खंडेरावस्तु तत्सुतः ॥१॥ विलासी गुणकल्पद्रुः शुरो वीराभिसम्मतः । तत्पत्नी पुण्यचरिता कुलद्वयविभूषणं ॥२॥ अहल्याख्या तया ख्याता तृषु लोकेषु कीर्तये। वद्धोघहस्सुसोपानो मणिकस्सुिविस्तृतः ॥३॥ तत्पार्श्वयोर्विधायेमौ प्रासादावुन्नतौ तयोः पश्चिमदिकसंस्थे स्थापितो गौतमेश्वरः ॥४॥ प्राक संस्थे तारकेशांक अहल्योद्वारकेश्वरः । स्थापितो वसुवेदेह विधुसम्मतवैक्रमे ॥५॥ रामेन्दुदधि भूयुक्ते शालिवाहनजेशके। राधशुक्लद्वितीयायां दुंदुभिवत्सरे ॥६॥ घटोत्सर्गः सुसम्पन्न: यजमान्यभ्यनुज्ञयया। स्वामिकायहितैकेच्छु जीवाजीशम हस्ततः ॥७॥ (शाके १७१३) गुरौ काशी में बिन्दुमाधव घाट सम्वत १७९२ में श्री छत्रपति महाराज के पन्त प्रतिनिधि परशुराम के पुत्र श्री श्रीनिवास की स्त्री श्रीमती राधाबाई ने बनवाया है और ऐसा अनुमान होता है जब यह घाट नहीं बना था तभी से इसका नाम नरसिंह दाद्य था, क्योंकि नरसिंह दाढ़े का नाम उस श्लोक में पड़ा है जो बाई साहब के काल का बना है । निश्चय है कि नरसिंह दाढ़ा के नाम से लोग सोचेंगे कि यह कौन वस्तु है, परंतु मैं इतना ही कह सकता हूँ कि वह नरसिंह दाय एक पत्थर का केवल मुख का आकार है जो रामानंद की मढ़ी में हनुमान जी की बाई ओर दीवार में लगा है और जब वहाँ तक पानी चढ़ता है तब इंद्रदमन का नहान लगता है । ऐसा अनुमान होता है कि यह इसी नाम के हेतु बनाया हो वा यह किसी पुरानी मूर्ति का मुँह है जो नरसिंह जी के मुंह के नाम से पूजता है । पर कोई कहते हैं कि वह रामानंद गोसाई का मुंह है । जो हो, मुंह तो गोल पुराना मुझमुंडा सा यही श्लोक वहाँ खुदा है। स्वस्ति श्री विक्रमाद्विवननगरधरासंमिते १९७२ क्रोधनावे। 1 मासीषे शुक्लके दिक्तिथिहरिमयुते चान्हिविश्वेशतुष्ट्यै ॥ श्रीशाहोः श्रीनिवास: प्रतिनिधिपवग: पशुगमात्मजस्त। ज्जायाराधाकृतोयं जयतिनृहरिदंष्ट्राख्यघट्टः सुबखः॥१॥ प्रत्यंतरमिदं ऊर्ध्व श्लोकस्यद्वारिदीपवत् । अकारिबालकृष्णेन स्वामिकार्यनिरूपकं ॥२॥ तथा काशी में जो वृद्धकाल महादेव का मंदिर है वह भी किसी छत्रपति के आश्रितों में मेघश्याम के पुत्र चाविक उपनामक देवराज ने बनाया है और एक तो कालेश्वर के लिंग का जीर्णोद्धार किया और अपने नाम देवराजेश्वर एक शिव' और बैठाया है जो इन श्लोकों से प्रगट है। भारतेन्दु समग्र ६५२