पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६९७

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अब्देत्वीश्वरसंज्ञके शुमदिने संस्थाप्य कालेश्वरं। प्राचीन प्रणतार्तिभंजनपरं श्रीदेवराजेश्वर ॥ शाहूछत्रपतेः कृपालुबशग: श्रीदेवरोय: स्वयं। मेघश्यामसुत्तः शिवालयमहो काश्यामबध्नातध्रुवं ॥१॥ श्रीमत्प्रौढप्रतापप्रगटितयशसः शाहुभूपालकस्य। प्राजस्याचानुकारिद्विजहितविहितश्चाविकोदेवरायः । धात्रब्देमोरमानुमितमुपवनं गेहशालाविशालं। काश्यांविश्वेश्वरस्यनिजगधनुषः प्रीतयेनिर्निमाय ॥२॥ पापभक्षेश्वर भैरव का मंदिर भी बाजीराव का बनाया है । जो हो, अब काशी में जितने मंदिर वा वाट है उन में आधे से विशेष इन महाराष्ट्रों के बनाए हुए हैं। हुआ कि यह शिवपुर का द्रौपदी कुण्ड यह बात प्रसिद्ध है कि शिवपुर काशी की पंचक्रोशी में कोई तीर्थ नहीं केवल लोगों के वहाँ टिकते टिकते वह टिकान हो गई है और देवता बिठा दिए गए हैं । पर अब की द्रोपदी कुंड में एक पत्थर के देखने से ज्ञात तीर्थ है और तीन सौ बरस पहिर पांडवों का मंदिर था । वरच 'सुकृति कृति हितैषी" पद जो उस में राजा टोडरमल का विशेषण दिया है उस से ज्ञात होता है कि उन्होंने भी किसी के बनाये हुए कुंड का जीर्णोद्धार किया है इससे उसकी और भी प्राचीनता सिद्ध होती है । यह बावली राजा टोडरमल ने स. १६४६ में बनवाई थी और पांडव मंडपे" इस पद से स्पष्ट है कि वहाँ उस काल में पांडवों का मंदिर था । इस का पहिला श्लोक नहीं पढ्न गया बाकी के तीन श्लोक पाठकों के विनोदार्थ यहाँ प्रकाशित होते हैं। प्रत्यर्थिक्षितिपालकालनसु**** ने दूतिका। मुद्रांक प्रकटप्रतापतपनप्रोभासिताशामुखे ॥१॥ क्षाणाशेकवरे प्रशासति महीं तस्मिन् नृपालावलिस्फूर्जन्मो- लिमरीचिवीचिरुचिरोदञ्चत्पदाम्भोराहे ॥२॥ तदाज्यैकधुरन्धरस्य वसुधा साम्राज्यदीक्षागुरोः । श्रीमछण्डनवंशमण्डनमणे :श्रीटोडरक्ष्मापतेः । धौधेकविधौ समाहितमतेरादेशतोचीकर- द्वापी पाण्डवमण्डपे** वनो गोविन्ददासः सुधीः ॥३॥ ऋतुनिगमरसात्मासम्मिते १६४६ बत्सरेशे सुकृतिकृतिहितैषी टोडरक्षोणिपालः । विहितविविधपूर्तों sचीकरच्चारु वापीम् विमलसलिलसारां बसोपान पंक्तिम् ॥४॥ पंपासर का दानपान यह दानपात्र गोदावरी के तीर पर एक खेतवाले को मिला है । यह पाँच टुकड़ों में अच्छा गहिरा खुदा हुआ कपाली लिपि में पाँचों टुकड़े एक तामे की सिकड़ी में बंधे हुए एक तामे के डब्बे में बंद और उसी डब्बे में शीसे की भाँति किसी वस्तु के आठ टुकड़े और एक चोंगा जिसमें सील लगी हुई थी निकला है । अनुमान होता है कि इस चोंगे में कागज रहा होगा, जो काल पाकर भीतर ही भीतर गल गया है । यह पत्र चंद्रवंशी क्षत्री दो राजाओं के दिए सं. १९७ के हैं और इन के पढ़ने से उस काल की बहुत सी चाल व्यवहार और उन के राज्य करने की नीति इत्यादि प्रगट होती है । इससे इनका यथास्थित संस्कृत का भाषानुवाद यहाँ प्रकाश होता है पुरावृत्त संग्रह ६५३