पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६९८

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इस वंश का और कहीं पता नहीं लगा है । केवल उन दोनों ताम्रपत्रों से जो कालेपानी से सं. १८५७ में एशियाटिक सोसाइटी में आए थे इनका संबंध ज्ञात होता है, क्योंकि उनमें यही लिपि और इन्हीं दोनों वंशों का वर्णन है पर नाम अलग अलग है और उन दोनों में संबंध भी नहीं है। विजनजवन नामक क्षत्रियों के दो प्राचीन कुल थे जिनकी संज्ञा ढढ़िया और पुछड़िया थी ।।१।। अपने बैरियों का सर्वस्व धन और धर्म नाश करके और भोग करके ढढ़िया वंश समाप्त हुआ। पुड़िया कुल के राजा जब दोनों कुलों के स्वामी हुए तब इन लोगों ने प्रजा का बड़ा आडम्बर से सत्कार किया और चक्रवर्ती हो गए ।।३।। विद्या में बड़े पद और सभाओं में बड़ी बड़ी वक्तृता और आदर के अनेक आकाशी चिन्हों से इन के अनुयायी सदैव शोभित रहते थे ।।४।। उदार ऐसे थे कि समाधि में भी रुपया नहीं बचने पाता था, चारों ओर केवल जाचक ही जाचक दिखाई देते थे ।।५।। कलानिपुण ऐसे थे कि इन के सिवा और कोई था ही नहीं और राजनीति के छल बल के तो एकमात्र वृहस्पति थे ।।६।। कहते हैं कि शौरसेन यादव वंश में बलदेव जी से इस वंश का साक्षात् संबंध है, क्योंकि अब तक ये जैसे हलीमद प्रिय भी हैं ।।७।। ये इतने चतुर थे कि और सब जाति के लोग इन के सामने मूर्ख जात होते थे । और प्रबल भी इतने कि इन की बात कभी दोहराई नहीं जाती थी ।।८।। इन में वेणु के पुत्र सगर के पौत्र द्वीपसिंह के प्रपौत्र नाभाग और त्रिशंकु नामक दो राजा हुए ।।९।। नाभाग को भोज मदमत्त और भगवान तीन पुत्र और त्रिशंकु को बावन नामक एक पुत्र था ।।१०।। बावन को गौर चंद्र और हनुमान दो पुत्र हुए. जो अब तमसा कृष्णा तक नीलगिरि से हिमगिरि के प्रांत तक राज्य करते हैं ।।११।। इनके अभिषेक के जलकण से और हाथियों के मद से तथा शूरों के परिश्रम और रति शूरों के स्वेद जल और इन के शत्रुओं की स्त्री के नेव्रजल से मिलकर इन की दान जलधारा नगर के चारों ओर खाई सी बन रही है ।।१२।। जिन लोगों को ये जीतते थे उन की ऐसी दुर्गति होती थी कि वे अन्न वस्त्र को भी दीन हो जाते थे तथापि ये ऐसे दयालु थे कि यही मात्र उन के शरण होते थे ।।१३।। प्राचीन कर सब इन लोगों ने क्षमा कर दिए । इनके काल में केवल आठ दस कर बच गए । उस पर भी प्रजा को दु:खी देखकर ये उन का बड़ा प्रतिपालन करते थे ।।१४।। वरंच ये ऐसे दयालु थे कि और राजाओं की भांति आप कर लेने में ये ऐसे लज्जित होते थे जिस का वर्णन नहीं । इसी से पाठशाला धर्मशाला इत्यादि धर्म कार्य के हेतु संगृहीत हो कर उन्ही कामों में व्यय होता था ।।१५।। शुकलानधान उसी को समझते थे जो इनके जातिवालों की नौकरी वा बनज को मिस आवे ।।१६।। के लक्ष्मी के एक मात्र आश्चय सरस्वती के पूरे दुर्गा के वर्ग तीनों शक्त्ति से ये सम्पन्न और त्रिदेव बड़े आग्रही थे ।।१७।। इन धर्मावतारों ने पंपासर तीर्थ पर चन्द्रमा के पूर्ण ग्रास पर फाल्गुनी पौर्णिमा संवत् १९७ पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र व्यतीपात योग बैद्य करण शनिवार कन्या पर गुरु मेष पर शुक्र मीन पर सूर्य कुम्भ में चंद्रमा भियुन में बुध करकट में मंगल और शनि में पंपासर तीर्थ में स्नान कर परम धार्मिक परमेश्वर परम माहेश्वर भट्टारक महाराज गौरचंद्र तथा हनुमच्दंद्र मुड़ाल गोत्र गाडि.गरस मुडाल द्विजवर ठक्कुरनासी के पौत्र ठक्कुर उव्वट के पुत्र ठक्कुर चुप्पल शर्मा को कलिंगदेशान्तर्गत बातावी प्रगने के शीशल प्रगने का पसंसरी और कारंस नामक दो ग्राम दे कर इस के सीर सायर आकास पाताल खेत खर्वट बाटी तिवारी जल थल सब पर इन का अधिकार करते है इन के वंश का जो होय वह उस को मानै कोई कर नहीं लगेगा । भारतेन्दु समग्र १५०