पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७०

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'और इसका तीर्थपना पक्का हो जाय, क्योंकि तुम्हारे वा हमारे वा तुम्हारे किर्स सेवक के नहाने से जल मात्र गंगा हो जाते हैं। तो आओ, इधर आओ इस उत्तम तीर्थ का मार्ग दिलानेवाला तुम्हारे आगे चलता है, जिसका नाम- केवल तुम्हारा अक्षय तृतीया, वैशाख शुक्ल ३ सं. १९३० मंगल

14 नंददास, प्रेम-सरोवर प्रेमीजन इत आवहीं न्हान हेत सानंद ।१४ जिहि लहि फिर कछु लहन की आस न चित में होय। या सरवर की हौं कहा सोभा करौं बखान । जयति जगत पावन-करन प्रेम बरन यह दोय ।१ मत मुदित मन भौर जहँ करत रहत नित गान ।१८ | प्रेम प्रेम सब ही कहत प्रेम न जान्यौ कोय । कबहुँ होत नहि भ्रम निसा इक रस सदा प्रकास । जो पै जानहि प्रेम तो मरै जगत क्यों रोय ।२ चक्रवाक बिछुरत न जहँ रमत एक रस रास ।१९ | प्राननाथ के न्हान हित धारि हृदय आनंद । नारद शिव शुक सनक से रहत जहाँ बहु मीन । प्रेम-सरोवर यह रचत रुचि सों श्री हरिचंद ।३ सदा अमृत पीके मगन रहत होत नहिं दीन ।२० प्रम-सरोवर यह अगम यहाँ न आवत कोय । आनंदघन, सूर, नागरीदास । आवत सो फिर जात नहि रहत वहीं के होय ।४ कृष्णदास, चैतन्य, हरिवंस, गदाधर, व्यास ।२१ प्रेम-सरोवर मैं कोऊ जाहु नहाय बिचारि ! इन आदिक जग के जिते प्रेमी परम प्रसंस । कछु के कछु हवे जाहुगे अपनेहि आप बिसारि ।५ तेई या सर के सदा सोभित सुंदर हंस ।२२ प्रेम-सरोवर नीर को यह मत जानेहु कोय । तिन बिनु को इत आवई प्रेम-सरोवर न्हान । फस्यौ जगत मरजाद में बृथा करत जप ध्यान ।२३ यह मदिरा को कुण्ड है न्हातहि बौरो होय । | अरे बृथा क्यों पचि मरो ज्ञान-गरूर बढ़ाय । प्रेम-सरोवर नीर है यह मत कीजो ख्याल । | बिना प्रेम फीको सबै लाखन करहु उपाय ।२४ परे रहे प्यासे मरै उलटी याँ की चाल | प्रेम सकल श्रुति-सार है प्रेम सकल स्मृति-मूल । प्रेम-सरोवर-पंथ मैं चलिहै कौन प्रवीन । प्रेम पुरान-प्रमाण है कोउ न प्रेम के तूल ।२५ कमल-तंतु की नाल सों जाको मारग छीन 12 प्रेम-सरोवर के लग्यौ चम्पाबन, चहुँ ओर । बूथा नेम, तीरथ, धरम, दान, तपस्या आदि । कोऊ काम न आवई करत जगत सब बादि ।२६ भंवर बिलच्छन चाहिए जो आवै या ठौर ।९ लोक-लाज की गाँठरी पहिले देई डुबाय । करत देखावन हेत सब जप तप पूजा पाठ । प्रेम-सरोवर पंथ मैं पाछे राखै पाय ।१० काम कछु इन सों नहीं यह सब सूखे काठ ।२७ प्रेम-सरोवर की लखी उलटी गति जग मांहि । बिना प्रेम जिय ऊपजे आनंद अनुभव नाहि । जे डूबे तेई भले तिरे तरे ते नाहि ।११ | ता बिनु सब फीको लगै समुझि लखहु जिय माँहि ।२८ प्रेम-सरोवर की यहै तीरथ बिधि परमान । ज्ञान करम सों औरह उपजत जिय अभिमान । लोक वेद को प्रथम ही देहु तिलांजलि-दान ।१२ | दृढ़ निहचै उपजै नहीं बिना प्रेम पहिचान ।२९ जिन पाँवन सों चलत तुम लोक वेद की गैल । परम चतुर पुनि रसिकबर कैसोहू नर होय । सोन पाँव या सर धरौ जल हवे जैहे मैल ।१३ | बिना प्रेम रूखी लगै बादि चतुरई सोय ।३० प्रेम-सरोवर पंथ मैं कीचड़ छीलर एक । जान्यौ वेद पुरान भे सकल गुनन की खानि । तहाँ इनारू के लगे तट 4 वक्ष अनेक ।१४. चु.पै प्रेम जान्यो नहीं कहा कियो सब जानि ।३१ लोक नाम है पंक को वृच्छ वेद को नाम । काम क्रोध भय लोभ मद सबन करत लय जौन ।' ताहि देखि मत भूलियो प्रेमी सुजन सुजान ।१५ महा मोहहू सो परे प्रेम भाखियत तौन ।३२ गहवर बन कुल वेद को जहं छायो चहुँ ओर । | बिनु गुन जोबन रूप धन बिनु स्वारथ हित जानि । तहँ पहुँचै केहि भाँति कोउ जाको मारग घोर ।१६ | शुद्ध कामना ते रहित प्रेम सकल रस-खानि । ३३ तीछन बिरह दवागि सों भसम करत तरुवंद । अति सूछम कोमल अतिहि अति पतरो अति दूर । प्रेम कठिन सब तें सदा नित इक रस भरपूर ।३४/ भारतेन्दु समग्र ३०