पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७११

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अपने साथ लेता गया । राज पर बैठने के पहिले बाजीराव ने दौलतराव से करार किया था कि हम पेशवा होंगे तो तुम को दो करोड़ रुपया देंगे, पर जब इतना रुपया आप न दे सका तो दौलतराव के साथ पूना लूटा । सन १८०२ में जब दौलतराव कहीं दौरा करने गया था तब यशवन्त राव हुल्कर ने पूना पर चढ़ाई किया और पेशवा और सेधिया दोनों की सैना को हरा कर पूने को खूब लूटा । बाजीराव इस समय भाग कर अंगरेजों की शरण गया और उन से बसई में यह बात ठहराई कि सारी ८००० फौज पूने में रहै और बाजीराव को शत्रुओं से बचावै और उस का सब खर्च बाजीराव दे । अंगरेजी फौष पहुंच जाने के पूर्व ही हुल्कर पूना छोड़ के चला गया और बाजीराव फिर से पेशवा हुआ । बाजीराव ऊपर से तो अंगरेजों से मेल रखता था पर भीतर से बड़ाही बैर रखता था और दूसरे राजों को बहकाने सिवा आप भी छिपी छिपी फौज भरती करता जाता था । सन् १८१५ में गंगाधर शास्त्री पट्टवर्दन जो गाइकवाड़ का वकील हो कर सर्कार अँगरेज की सलाह से बाजीराव के दरबार में गया था, उस को बाजीराव ने त्र्यंबक डेंगला नाम के एक अपने मुंह लगे हुये सरदार से मरवा डाला, जो सकार के और बाजीराव के बैर का मुख्य कारण हुआ और सकार ने उस त्र्यंबक को सन् १८१८ में पकड़ कर चुनार के किले में कैद किया । सर्कारी फौज इस समय गवर्नर-जेनरल की आज्ञा से पिंडारों को शमन करती फिरती थी कि इसी बीच में बाजीराव ने भी किसी बहाने से सर्कार से लड़ाई करनी आरंभ कर दी और बापू गोखला को सेनापति नियत किया, पर अंत में हार कर सन् १८१८ ई. की ३ जून को माल्लकम साहेब के शरण में जाकर आठ लाख रुपया साल लेकर बिठूर में रहना अंगीकार किया । और इसी बीच में अष्ट गाँव पर छापा मार के सितारा के राजा को पकड़ लिया और इसी लड़ाई में बापू मारा गया । जब बाजीराव भागा फिरता था, उन्हीं दिनों में भीमा के किनारे कारै गाँव में मरहठों की फौज से और सकारी फौज से एक बड़ा घोर युद्ध हुआ, जिस में सारी ३०० सिपाही और बीस अंगरेज मारे गये, पर इन लोगों ने बहादुरी से उनको आगे न बढ़ने दिया । सकार की ओर से यहाँ जयसूचक एक कीर्तिस्तंभ बना है । सकरि ने महाराष्ट्र देश का राज अपने हाथ में लेकर एलफिस्टन साहेब को वहाँ का प्रबंध सौंपा और पूर्वोक्त साहब ने महाराष्ट्रों की परंपरा के मान और रीति का पालन कर के किसी की जागीर किसी के साथ बंदोबस्त कर के वहाँ की प्रजा को ऐसा संतुष्ट किया कि वे लोग अब तक उन को स्मरण करते हैं । दिल्ली दरबार दर्पण THE DELHI ASSEMBLEGE MEMORANDUM जयति राजराजेश्वरी जय युवराज कुमार । जय नृप-प्रतिनिधि कवि लिटन जय दिल्ली दरबार स्नेह भरन तम हरन दोउ प्रजन करन उँजियार । भयो देहली दीप सो यह देहली दरबार ।। इस पुस्तक में सन् १८७७ के दिल्ली दरबार का विशद वर्णन है, जो क्वीन विक्टोरिया के भारत सामाशी पदवी धारण करने के उपलक्ष्य में लार्ड लिटन के नेतृत्व में हुई थी। यह सन् १८७७ के जनवरी अंक मे पहली बार हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' के परिशिष्ट मे छपी थी। सं. दिल्ली दरबार दर्पण ६६७ 45