पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७२९

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40#h वंश राज्य करता है तो उस की शाखा प्रशाखा आस पास छोटे छोटे राज्य निर्माण कर के राज करती हैं । इसमें क्या आश्चर्य है कि ताम्रपत्रों में ऐसे ही अनेक श्रेणियों की वंशावली का वर्णन हो जो वास्तव में सब बल्लभी वंश से संबंध रखती हैं । ऐसा ही मान लेने से पूर्वोक्त समय और वंश निर्णय की असमंजसता, जटिलता. घनता, असंबद्धता और विरोधिता दूर होगी । सुमित्र से लेकर शिलादित्य तक एक प्रकार का निर्णय ऊपर हो चुका और इस से निश्चय हुआ कि महाराज सुमित्र कलियुग के अंत में हुए थे और बल्लभीपुर का नाश भए दो हजार वर्ष के लगभग हुए । कहा है कि बल्लभीपुर में सूर्यकुंड नामक एक तीर्थ था । युद्ध के समय शिलादित्य के आवाहन करने से इस कुंड में से सूर्य के रथ का सात सिर का घोड़ा निकलता था और इस अश्व के रथ पर बैठने से फिर शिलादित्य को कोई जीत नहीं सकता था । और यह भी कथित है कि सूर्य की दी हुई शिलादित्य के पास एक ऐसी शिला थी जिसको दिखा देने से वा स्पर्श करा देने से शत्रुओं का नाश हो जाता था । और इसी वास्ते इनका नाम शिलादित्य था । इन के किसी शत्रु ने इन्हीं के किसी निज भेदिये की सम्मति से उस पवित्र कुंड को गोरक्त द्वारा अशुद्ध कर दिया. जिससे' बल्लभीपुर के नाश के समय राजा के बारंबार आवाहन करने से भी वह अश्व नहीं निकला और राजा सपरिवार युद्ध में निहत हुआ और वल्लभीपुर नाश हुआ । जैनग्रंथों के अनुसार संवत २०५ में बल्लभीपुर नाश हुआ और श्री महाराणा उदयपुर के राज्य कृत संग्रह के अनुसार राजा शिलादित्य का नाम सलादित्य था और बल्लभीपुर का नाम विजयपुर । अंगरेजी विद्वानों का मत है कि निगरावरोधकारी शत्रुदल ने हिंदुओं को दु:ख देने के हेतु गोरक्त से बल्लभीपुर के जल कुंडों को अशुद्ध कर दिया होगा, जिससे हिंदू लोग घबड़ा कर एक साथ लड़ने को निकल खड़े हुए होंगे । अलाउद्दीन बादशाह ने गागरोन देश के खींची राजाओं से यही छल किया था । बल्लभीपुर के शत्रुओं का यही छल मानों इस कथा का मूल है। बल्लभीपुर को किस असभ्य जाति ने नाश किया इस का निर्णय भली भाँत नहीं होता । प्राचीन पारस निवासी लोग वृष को पवित्र समझते थे और सूर्य के सामने उसको बलिदान भी करते थे । इस से निश्चय होता है कि ये लोग पारसी तो नहीं थे । प्राचीन ग्रंथों में पाया जाता है कि ख्रिष्टीय दूसरी शताब्दी में सिंधु नदी के किनारे पारद वा पार्थियन लोगों का एक बड़ा राज्य था । विष्णुपुराण में लिखा है कि सूर्यवंशी सगर राजा ने मलेच्छों को चिन्ह विशेष देकर भारतवर्ष से निकाल दिया था, जिस में यवन सर्व शिरोमुडित केश, अर्दशिर- मुंडित, पारद मुक्त केश और पन्हव वा पल्हव श्मनुधारी बनाए गए थे । उसी काल में श्वेत वर्ण की एक हूण जाति भी सिंधु के किनारे राज्य करती थी । हूण जाति नामक प्राचीन असभ्य मनुष्यों के लेख पुराणों और यूरोप के इतिवृतों में भी पाया जाता है । संभावना होती है कि इन्हीं दो जातियों में से किसी ने बल्लभीपुर नष्ट किया होगा । पारद और हूण दो जातियों का आदिनिवास शाकद्वीप है । महाभारत में शाकद्वीपी और पूर्वोक्ति ह्रणादिको को इसी प्रकार यवन लिखा है । पुराणों में इन सबों को एक प्रकार का क्षत्री लिखा है । ये सब असभ्य जाति शाकद्वीप से किस काल में यहाँ आए इसका पता नहीं लगता । वेण्टली साहब का मत है कि शाकद्वीप इंगलैंण्ड का नामांतर है । विशेष आश्चर्य का विषय यह है कि ये सब शाकद्वीपी काल पा के आर्य जाति में मिल गए. यहाँ तक कि ब्राहमण और क्षत्रियों में भी शाकद्वीपी वर्तमान हैं। यह निश्चय हुआ कि इन्हीं म्लेच्छ जाति के लोगों में से किसी जाति ने बल्लभीपुर नाश किया । साँदोराई से जो वंशपत्रिका मिली है उसमें लिखा है कि बल्लभीपुर नाश होने के पीछे वहाँ के लोग मारवाड़ में आकर साँदोरावालों और नादोर नगर बसा कर रहने लगे और फिर गाजनी नामक एक नगर का और भी उल्लेख है। एक कवि अपने ग्रंथ में लिखता है "असभ्यों ने गाजनी हस्तगत किया, शिलादित्य का घर जनशून्य हुआ और जो वीर लोग उस की रक्षा को निकले वे मारे गए हिंदू सूर्य के वंश का यहाँ चौथा दिवस अवसान हुआ । प्रथम दिवस इक्ष्वाकु से श्री रामचंद्र तक अयोध्या में बीता. दूसरा दिन लव से सुमित्र तक अन्य राजधानियों में, तीसरा सुमित्र से विजयभूप तक अँधेरे मेघों से छिपा हुआ कहाँ बीता न जान पड़ा और यह चौथा दिन आज बल्लभीपुर में शिलादित्य के अस्त होने से समाप्त हुआ । पाँचवें दिन का इतिहास बहुत स्पष्ट है, जो गुह और बाणा के विचित्र चित्रों से चित्रित होकर दूसरे अध्याय में वर्णन होगा। इति उदयपुरोदय प्रथम अध्याय उदय पुरोदय ६८५ 1