पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७३२

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लोग शपथ करों कि "तुमारा भला बुरा कोई हाल किसी से न कहेंगे, तुमको छोड़ के न जायगे, और जहाँ जो कुछ सुनेंगे सब आ कर तुम से कहेंगे । यदि इस में कोई बात टालें, तो हमारे और पुरुषां के धर्म कर्म इस ढेले की भांति धोबी के गड़हे में पड़े" । बापा के संगियों ने यही कह कह के ढेला गढ़हे में फेंका और उस के अनुसार वापा का विवाह करना उन के संगियों ने प्रकाश न किया । किंतु छ सौ सरता कुमारियो पर जो बात विदित है, वह कभी छिप सकती है। धीरे-धीरे यह विवाह खेल की कथा राजा के कान तक पहुंची । वापा को तीन वर्ष की अवस्था से भांडीर दुर्ग से लाकर ब्राहमणों ने इसी नागेंद्र नगर के समीप निविड़ पराशर कानन में त्रिकूट पर्वत के नीचे अपने घर में रक्खा था, इस से वापा उसी सोलखी राजा के प्रजा थे। राजा ने यह समाचार सुन लिया, यह जान कर वापा नागेन्द्र नगर छोड़ कर पर्वतों में छिप रहे और उसी समय से उन का सौभाग्य संचार होने लगा । किंतु इन छ सौ कुमारियों का फिर पाणिग्रहण न हुआ और वापा ही के गले पड़ी । इसी कारण सैकड़ों राजा जमींदार सरदार सिपाही क्षत्री अपने को वापा की संतान बतलाते हैं। नागेंद्र नगर से चलने के समय में दो भील वाप्पा के सहगामी हुए थे । इनमें एक उंद्री प्रदेशवासी और इस का नाम वालव, अपर अगुणापानोर नामक स्थान-निवासी, इस का नाम देव । इन दोनो भीलों का नाम वाप्पा के नाम के साथ चिरस्मरणीय हो रहा है । चित्तौर के सिंहासन पर अभिषिक्त होने के समय वालव ने स्वीय करागुलि कर्तन कर के सद्यो शोणित से वाप्पा के ललाट में राजतिलक प्रदान किया था । तदनुसार अद्यावधि पर्यंत वाप्या वंशीय राजगण के सिंहासनारोहण के दिवस इन्हीं दो मीलों के संतान गण आकर अभिषेक-विधि संपादन करते हैं । अगुणा प्रदेश के मील स्वीय शोणित से राजललाट में तिलकार्पण और राजकीय बाहु धारण कर के सिंहासन में अधिष्ठित कराते हैं । उद्री प्रदेश का भील तावत काल दंडायमान हो कर राजतिलक का उपकरण द्रव्य का पात्र लिये रहता है । जो प्रथा पुरुषानुक्रम से इस प्रकार से प्रतिपालित होती चली आती है, उस का मूल किस प्रकार से उत्पन्न हुआ था यह अनुसंधान कर के ज्ञात होने से अंत:करण कैसा विपुल आनंद रस से आप्लुत हो जाता है। मेवार के राज्याभिषेक के समुदय प्राचीन नियम रक्षा करने में विपुल अर्थ का व्यय होता है इसी कारण उसका अनेक अंग परित्यक्त हो गया है । राणा जगतसिंह के पश्चात् और किसी का अभिषेक पूर्ववत् समारोह के साथ संपन्न नहीं हुआ । उन के अभिषेक में नब्बे लक्ष रुपया व्यय हुआ था । मेवार के अति समृद्ध समय में समग्न भारतवर्ष की आय ९० लक्ष रुपया थी। नगेंद्र नगर से वाप्पा के जाने का कारण पहिले वर्णित हुआ है, वह संपूर्ण संगत है, परंतु भट्ट कविगण के ग्रंथ में उन के प्रस्थान का अन्य प्रकार का विवरण दृष्ट होता है । उन लोगों ने कविजन सुलभ कल्पना- प्रभाव से दैव घटना का आरोप कर के उस की विलक्षण शोभा संपादन किया है। काल्पनिक विवरण से १. वापा मांडीर दुर्ग में भीलों के हाथ से पले थे । जिस भील ने वापा को पाला वह जदुवंशी था । उस प्रदेश में भीलों की दो जाति है । एक उजले अर्थात शुद्ध भील वंश के दूसरे संकर भील । यह संकर भील राजपूतों से मिल कर उत्पन्न हुए हैं और पंवार, चौहान, रघुवंशी, जदुवंशी इत्यादि राजपूतों की जाति के नाम उन की जाति के भी होते है। यह भांडीर दुर्ग मेवाड़ में जारोल नगर से आठ कोस दक्षिण-पश्चिम है। २ नागेंद्र नगर का नाम नागदहा प्रसिद्ध है । यह उदयपुर से पांच कोस उत्तर की ओर है । यहाँ से टॉड साहब ने अनेक प्राचीन लिपि संग्रह किया था । इन सबों में एक पत्थर ईसवी नवम शतक का है जिस में राजाओं की उपाधि (गोहिलोट) लिखी है। ३ वाप्या दुलार में लड़के को कहते हैं । एक प्राचीन ग्रंथ में वापा का नाम शिलाधीश लिखा है, किंतु प्रसिद्ध नाम इन का वापा ही है। ४ टॉड साहब कहते हैं, भारतवर्ष के मध्य अगुनापनोर प्रदेश अद्यावधि प्राकृतिक स्वाधीन अवस्था में है। अगुना एक सहम ग्राम में विभक्त । तत्रस्थ भीलगण जातीय जनैक प्रधान के आधीन में निर्विघ्नता से बास करते हैं। इस प्रधान की उपाधि भी राणा है, पर किसी राज के साथ इन लोगों का विशेष कोई संस्रव नहीं । विग्रह उपस्थित होने से अगुना का राणा घनु :शर पाँच सहस्र जन एकत्र कर सकता है। आगुनापनोर मेवार राजा के दक्षिण- पश्चिम प्रांत में अवस्थित है। ५ राजटीका का प्रधान और प्राचीन उपकरण जल संयुक्त तंदुल चूर्ण राजस्थान की चलित भाषा में उस राजटीका का नाम "शुशकी काल क्रम से सुगधि मिला हुआ णं तदुपकरण मध्य परिगणित हो गया है।

भारतेन्दु समग्र ६८८