पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अलंकृत न हो ऐसा संभ्रात वंश भारतवर्ष में अतीव दुर्लभ है, सुतरा हम भी भट्टगण वर्णित वाप्या के सौभाग्यसंचार का विवरण निम्न में प्रकटित करते है पहले कह आये हैं कि वाप्या ब्राहमणगण का गोचारण करते थे। उनकी पालित एक गऊ के स्तन में ब्राहमणगण ने उपर्युपरि कियदिवस तक दुग्ध नहीं पाया, इस से सदेह किया कि वाप्पा इस गऊ को दोहन कर के दुग्ध पान कर लेते हैं । वाप्पा इस अपवाद से अति क्रुध हुए, किंतु गऊ के स्तन में स्वरूपत : दुग्ध न देख कर ब्राहमणगण के संदेह को अमूलक न कह सके । पश्चात् स्वयं अनुसंधान कर के देखा कि यह गऊ प्रत्यह एक पर्वत गुहा में जाया करती थी और वहां से प्रत्यागमन करने से उस के स्तन एय :शून्य हो जाते हैं । वाप्या ने गऊ का अनुसरण कर के एक दिन गुहा में प्रवेश किया और देखा कि उस वेतसवन में एक योगी ध्यानावस्था में उपविष्ट है । उन के सम्मुख में एक शिवलिंग है और उसी शिवलिंग के मस्तक पर पयस्विनी का धवल पयोधर प्रचुर परिमाण से परिवर्षित होता है। पूर्वकाल के योगी ऋषिगण भिन्न यह प्राकृतिक और पवित्र देवस्थली इति पूर्व में और किसी को दृष्टिगोचर नहीं हुई थी । वाप्पा ने जिन योगी का ध्यान अवस्था में दर्शन किया था उन का नाम हारीत जन समागम से जोगी का ध्यान भंग हुआ, वाप्पा का परिचय जिज्ञासा करने से वाप्या ने आत्म वृत्तांत जहाँ तक अवगत थे सब निवेदन किया । योगी के आशीर्वाद ग्रहणांतर उस दिन गृह में प्रत्यागत भए अत : पर वाप्पा प्रत्यह एक बार योगी के निकट गमन कर के उन का पादप्रक्षालन, पानार्थ पय:प्रदान और शिवप्रीति काम होकर धतूरा, अर्क प्रभृति शिव-प्रिय वन पुष्प समूह चयन किया करते । सेवा से तुष्ट होकर योगीवर ने उन को क्रम क्रम से नीति शास्त्र में शिक्षित और शैव मंत्र से दीक्षित किया और स्वकर से उन के कंठ में पवित्र यज्ञसूत्र समर्पण पूर्वक "एकलिंग को देवान यह उपाधि प्रदान किया । तत्पश्चाता वाप्पा का यह क्रम था कि नित्यप्रति योगी का दर्शन करना और तत्कथित मंत्र का अनुष्ठान करना । काल पाकर भगवती पार्वती ने मत्र-प्रभाव से वाप्पा को दर्शन दिया और राज्यादिक के वरप्रदान पूर्वक दिव्य शस्त्र से वाप्पा को सुसज्जित किया । कियत कालानंतर ध्यान से योगी ने अपने परमधाम जाने का समय निकट जान कर वाप्या को तवृत्तांत विदित कर बोले 'कल तुम अति प्रत्यूष में उपस्थित होना?" वाष्पा निद्रा के वशीभूत होकर आदेशानुरूप प्रत्यूष में उपस्थित हो नहीं सके और बिलंब कर के जब वहाँ गए तो देखा कि हारीत ने आकाशपथ में कियद दूर तक आरोहण किया है। उन का विद्युत-निभ विमान उज्ज्वलांग अप्सरागण वहन करती हैं । हारीत ने विमान ति स्थगित कर के वाप्या को निकटस्थ होने का आदेश किया । उस विमान तक पहुँचने के उद्यम से वाप्या का कलेवर तत्क्षणात २० हाथ दीर्घ हो गया । किंतु तथापि उन को गुरुदेव का रथ प्राप्त नहीं हुआ । तब योगी ने उन को मुख व्यादान करने को कहा । तदनुसार वाप्या ने वदन व्यादित किया । कथित है योगीश्वर ने उन के मुख विवर में उगाल परित्याग किया था श्वाप्या ने उससे घृणा करके इस निष्ठोवन का पदतल में निक्षेप किया और इसी अपराध से उनको अमरत्वलाभ नहीं हुआ । केवल उनका शरीर अस्त्र शस्त्र से अभेद्य हो गया । हारीत अदृश्य हुए । वाप्या ने इस प्रकार सदेवानुग्रहीत होकर और अपने को चित्तौर के मौरी राजवंश का दौहित्र जानकर और आलस्य में कालक्षेप करना युक्ति संगत अनुमान नहीं किया । अब गोचारण से उनको अत्यंत घृणा हुई और उन्होंने कतिपय सहचर समभिव्यवहार में लेकर अरण्यवास परित्याग करके लोद में गमन किया । मार्ग में नाहर-मगरा नामक पर्वत विख्यात १. सूर्यवंशियों में ब्राह्मण की गोचारण करना प्रीचन प्रथा है। रघुवंश में दिलीप का इतिहास देखो । २. हारीत के वंशीय ब्राल्ल लोग अद्यावधि एकलिंग के पूर्वक पद मों प्यतिष्ठित है । टॉड साहब के समकालीन पुरोहित हारीत से षष्टाधिक षष्ठितम पुरुष थे उन के निकट में राणा के मव्यवर्तिता से शिवपुराण प्राप्त हो कर टॉड साहब ने हालैंड के रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ( Royal Asiatic Society) समाज को प्रदान किया था । ३. कथित है मुसलमानधर्मप्रचारक महम्मद ने स्वीय प्रिय दौहित्र हसन के बदन में ऐसाही निष्ठीवन परित्याग किया था । क्या आश्चर्य है जो मुसल्मान लोगों ने यह कथा भारतवर्ष के इसी उपाख्यान से ली है। ४. मेवार के राजधानी उदयपुर के पूर्व भाग में प्रवेश करने को रास्ते में कोस के अंदर नाहरमगरा पर्वत

उदय पुरोदय ६८९