पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७३६

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समे विशेषत : चित्तौर की एक खोदित लिपि से प्रकाश हुआ था कि ७७० संवत् में चित्तौर नगर मोरी वंशीय मान राजा के अधिकार में था । इसी मान राजा के समय में असभ्य गण ने चित्तौर नगर आक्रमण किया था । उन लोगों को पराभव कर के उस के पश्चात वाप्पा ने पंचदश वर्ष की अवस्था में चित्तौर का सिंहासन प्राप्त किया था । इस कारण ईश विवरण से वाप्या का जन्मकाल १९१ संवत् किसी प्रकार स्वीकृत नहीं हो सकता । परंतु उदयपुर के राजवंश के कुलाचार्य भट्ट गण पूर्वोक्त समुदय घटना स्वीकार कर के भी कहते हैं कि वाप्पा ने १९१ संवत् में जन्म ग्रहण किया था । टॉड साहब ने अनेक अनुसंधान कर के अवशेष में सौराष्ट्र देश में सोमनाथ के मंदिर की एक खोदित लिपि से जाना था कि वल्लभी संवत् नाम का एक और भी संवत प्रचलित था । वह संवत विक्रमादित्य के संवत से ३७५ बरस के पश्चात प्रारंभ हुआ था, २०५ वल्लभी संवत में यल्लमी पुर विनष्ट हुआ था, सुतरा विक्रमादित्य के संवतानुसार उस के विनाश का काल ५८० हुआ । जिस प्रणाली से टॉड साहब ने चित्तौर के मान राजा का राजत्व, वल्लभीपुर का विनाश और कुलाचार्य गण लिखित वाप्पा के जन्मसमय का परस्पर समन्वय साधन किया है वह विलक्षण बुद्धि व्यंजक है, परंतु जाटेल और नीरस है इस कारण सविस्तार से इस स्थान में प्रगटित नहीं किया । उसकी मीमांसा का स्थूलतात्पर्य यह है कि वल्लभीपुर विनाश के १९० बरस पश्चात विक्रमादित्य के ७६९ संवत में वाप्या ने जन्म ग्रहण किया था । कुलाचार्य गण ने भ्रमवशत: इस १९० संख्या को विक्रमादित्य का संवत् कर के लिखा है । तत् पश्चात् पंचदश वर्ष की अवस्था में वाप्पा चित्तौर राज्य में अभिषिक्त हुए थे । सुतरां ७८४ संवत् उनका चित्तौर प्राप्तकाल निरूपित हुआ । उस समय से साई एकादश वत्सरावधि वाप्पा के वंशीय साठ राजा गण ने क्रमान्वय से चित्तौर के सिंहासन पर उपवेशन किया है। यद्यपि भट्ट गण के ग्रंथानुयायी वाप्पा के जन्मकाल की प्राचीनत्व रक्षा नहीं हुई. परंतु जो समय टॉड साहब ने निरूपित किया है । वह भी नितांत आधुनिक नहीं है । तदनुसार प्रकाश होता है कि वाप्या फरासी राजा के करोली भिजिया वंशीय राज गण के और मुसल्मान साम्राज्य के वलीद खलीफा के समकालवर्ती थे । आइतपुर नगर से मेवाड़वंशीय और एक स्वोदित लिपि संगृहीत हुई थी । वह लिपि १०२४ संवत् समय की है । तत्कालीन चित्तौर के सिंहासन में वाप्पा के वंशीय शक्ति कुमार राजा प्रतिष्ठित थे । उस लिपि में शक्ति कुमार के चतुर्दश पुरुष के मध्य एक जन शील नाम से अभिहित हुए हैं । राजभवन की वंशावली अपेक्षा तल्लिपि में यही एक मात्र अतिरिक्त नाम लक्षित होता है, तद्भिन्न विषय में समता है । इंगलैंड के प्रसिद्ध कवि ह्यूम ने कहा है । "यद्यपि कविगण सूक्ष्म सत्य के तादृश अनुरागी नहीं, और यदिच वह इतिवृत का रूपांतर कर देते हैं, तो भी उन लोगों की अत्युक्ति के मूल में सत्य की सत्वालक्षित होती है" । हमें वर्णित विषय में ह्यूम की एतदुक्तिका सारत्व प्रतीयमान होता है । जन समागम सूनय स्वापद पूर्ण आइतपुर के कानन में जो सब नाम विलुप्त हो जाते और उन सब नामों के कभी किसी के कर्णगोचर होने की संभावना नहीं थी, किंतु भट्ट कविगण की वर्णना प्रभा में मेवाड़ राजवंश के प्राचीन काल के वह सब नाम चिरस्मरणीय हो रहे हैं। इस १०२४ संवत् समय में वलीद खलीफा के सेनापति मोहम्मद बिन कासिम ने भारतवर्ष में आकर सिंधु देश जय किया था । इस के पहिले मोरी वंशीय मानराजा के समय जिस असभ्य राजा ने चित्तौर नगर आक्रमण किया था और वाण्या कर्तृक जो पराजित हुआ था, वह अनुमान होता है कि यही बिन कासिम है । वाप्या और शक्ति कुमार के मध्यवर्ती नौ राजा ने चित्तौर में राजत्व किया था । उस समय से दो शत वर्ष के मध्य में नौ उन राजा का राजत्व असंभव नहीं । तदनुसार मेवाड़ के इतिवृत्त का निम्नोक्त चार प्रधान काल निरूपित हुआ । प्रथम, कनकसेन का काल १४४ । द्वितीय, शिलादित्य और वल्लभीपुर विनाश का काल ५२४ । तृतीय, वाप्पा के चित्तौर प्राप्ति का काल खष्टाब्द ७२८ । चतुर्थ, शक्तिकुमार का राजत्व काल खुष्टाद १०६८। १. आइतपुर --सूर्य्यपुर । आदित्य शब्द का अपभ्रंश आइत । आइत शब्द का संकीर्ण रूप एत, यथा एतबार आदित्यवार । भारतेन्दु समग्र ६१२