पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७४

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इत उत तरत कढ़ि बहु चंद । दोऊ जर- तार सारी बादला ले करत मोती पात इक डार परकि हिलाइ बरसावत कुसुम बहु रंग । तन स्वेद-कन घनश्याम जल हरि-प्रेम बरसत जात । इक नचत गावत इक बजावत बीन मधुर मृदंग । तरु सों पराग अमोद मधु-मद फूल बरसत पात । इक खींचि भाजत एक को पट हँसत भरी उमंग । मनु श्याम घन लखि उमगि इक लपट डोरी खात भंवरी प्रगटि अंग अनंग । दोऊ चहुँ दिसि तें चली बरसात । दोऊ. इक रीझि भूलनि पै रही इक रही बिरछन ओर । तरू फूल फल महि रहि गमकि तपि धूप ठौरहिं ठौर । इक होड़ दै भोटन बढ़ावत सौह देत निहोर । मिहदी सुगंध कुसुभ सारी अतर बासित छोर । इक थकित उतरत सिथिल बैठत नटत घूमरि घोर । मिलि केस सोंघे अरगजा कुच लेप मृगमद जोर । इक चढ़त भूलन हेत बदिकै दाँव लाख करोर । दोऊ. सुख मोद मधु तंबोल स्वेद सुगंध लेत झकोर । दोऊ. इक भजत तेहि गहि रहत दूजी हँसत झगरत बात । घन तड़ित चमकनि तासु आमा पाइ जल चमकात । इक कहत हम नहिं भूलिहैं भई सिथिल सगरे गात । तन बिबिध भूखन बसन चमकनि हँसनि में द्विजपात। तेहि बैंचि कोऊ आपुनो बल डोल मैं ले जात । चौंकि चमकनि नारि की मुख-चंद चमकनि गात । इक अमित बैठत ताहि दूजी करत अंचल बात । दोऊ. | मिलि पीत पट के चमक मैं इक रंग सबै दिखात। दोऊ. कोउ अंचल छोर कटि मैं बाँधि कसिकै देत । तन भीजि सारी रंग रंग के बारि बहत उदोत । कोउ किए लावन की कछोटी चढ़त झोटा हेत । सब रंग मिलि के बसन छापित मैं प्रगट मुख जोत । कोउ दाबि अंचल दाँत सों मुख सों मकोरे लेत । पिय के निचोरत चूनरी में रंग दूनो होत । कोउ बाँधि गाती हार सगरे भिरत रति रन-खेत। दोऊ. मनु बहे मिलि रंग-समुद मैं इक संग बहु रंग सोत । इक अमित मुख करि अरुन स्वेदित लेत बिबिध उसास। मुख पै कसूभी रंग सारी भीजि रही चुचाय । भए हाथ डोरी गहत राते मनहुँ राग प्रकास । लट सगबगी हवे तिमि रही गल कुचन मैं लपटाय । पिंडुरि काँपत अंग थहरत लहरि कच मुख पास । तन स्वेद-कन मलकत रहत मनु बाल ससि ढिग लाल बादर सुधा बरसत आय । तेहि पान करि अहि-पुच्छ सों कोउ चाहि मंद बतास । दोऊ. शिव-सीस देत बहाय । दोऊ. इक डरत झोटा देत पिय के गल रहत लपटाइ । तिनमैं छबीली ललित श्री बृषभानुराय-कुमारि । इक बीनि सबके आभरन पोहत तहाँ मन लाइ । जाऐं रमा रति उरबसी सी कोटि फेकिय वारि । इक गिरत रपटत वन गरज सुनि डरि छिपत इक जाइ। जगस्वामिनी जन-काम-पूरनि सहज ही सुकुँवारि । इक बसन डारन सों छुड़ावत रहे जे लपटाइ । दोऊ. कीरति-जसोमति-लाडली ब्रजराज-प्रान-पियारि। दोऊ. गए भीजि सबके बसन लपटे बिबिध अंबर गात । तन नील सारी मैं किनारी चंद-मुख परिबेख । तन दति अभूखन सहित भई तहँ सबन को प्रगटात । सिंदूर सिर दोउ नैन काजर पान की मुख रेख । मनु प्रान-प्रिय के मिलन अंतर-पट दुरायो जात । बड़े नैना चपल चितवनि श्याम हित अनमेख । खुलि गई कलई दुर्यो फल गोरी किसोरी परम भोरी सहज सुंदर भेख । दोऊ. भयो प्रगट प्रेम लखात । दोऊ. ढिग बाँह जोरे जासु बैठे नंदराय-कुमार । इत बदत सुक पिक भंवर चातक भेक मोर चकोर । प्रति रमक चितवनि हँसनिलखि जीवन करत मनुहार । इत डार हहरनि होत प्रतिधुनि मचकि डोल झकोर । परिबेख । अंचल केस हारन करत मधुर बयार । इत हंसनि हाहा सी सराहनि किकिनी की रोर । रहे रीझि आपाभूलि बारंबार कहि बलिहार । दोऊ. उत गान तान बंधान बाजन सिर मोर-मुकुट सोहावनो गल गुंज-माल अनूप । मिलि तुमुल कल घोर । दोऊ. तन श्यमसुंदर पीत पट कटि सहजहीं नट रूप । रंग रंग सारी रंग रंग के बहु अभूखन अंग । मनु नीलगिरि पैं बाल रबि की ललित लपटी धूप । रंग रंग फूले फूल चहुँ दिसि झालरे रंग रंग । प्रेमिन महा सुख देत अतिहि उदार श्री ब्रज-भूप। दोऊ. रंग रंग बादर छए नभ तन रंग रंग अनंग । मुरछल चवर बिजना अडानी लिए हाथ रुमाल । मनु श्याम ससि लखि रंग पिकदान फूल चंगेर भूखन बसन कुसुमन माल । सागर चढ़ि चल्यौ इक संग । दोऊ. | झारी भरी जल डबा बीरा बिबिध बिंजन थाल । भारतेन्दु समग्र ३४