पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७५२

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भूमिका भारतवर्ष के निर्मल आकाश में इतिहास चंद्रमा का दर्शन नहीं होता, क्योंकि भारतवर्ष की प्राचीन विद्याओं के साथ इतिहास का भी लोप हो गया । कुछ तो पूर्व समय में शृंखलाबद्ध इतिहास लिखने की चाल ही न थी और जो कुछ बचा बचाया था वह भी कराल काल के गाल में चला गया । जैनों ने वैदिकों के ग्रंथ नाश किये और वैदिकों ने जैनों के । एक राजधानी में एक वंश राज्य करता था । जब दूसरे वंश ने उसको जीता तो पहले वंश की संपूर्ण वंशावली के ग्रंथ जला दिए । कवियों ने अपने अन्नदाता को झूठी प्रशंसा की, कहानी जोड़ ली और उन के जो शत्रु थे उनकी सब कीर्ति लोप कर दी । यह सब तो था ही, अंत में मुसलमानों ने आकर जो कुछ बचे बचाये ग्रंथ थे जला दिए । चलिए छुट्टी हुई । ऐसी काली घटा छाई कि भारतवर्ष के कीर्तिचंद्रमा का प्रकाश हो छिप गया । हरिश्चन्द्र, राम, युधिष्ठिर ऐसे महानुभावों की कीर्ति का प्रकाश अति उत्कट था इसी से घनपटल को बेध कर अब तक हम लोगों के अँधेरे दृश्य को आलोक पहुंचाता है। किंतु ब्रह्मा से ले कर आज तक और जितने बड़े बड़े राजा या वीर या पांडेत या महानुभाव हुए किसी का समाचार ठीक ठीक नहीं मिलता । पुराणादिकों में नाम मिलता है तो समय नहीं मिलता। ऐसे अंधेरे में काश्मीर के राजाओं के इतिहास का एक तारा जो हम लोगों को दिखाई पड़ता है इसी को हम कई सूर्य से बढ़कर समझते हैं। सिद्धांत यह कि भारतवर्ष में यही एक देश है, जिसका इतिहास शृंखलाबद्ध देखने में आता है और यही कारण है कि इस इतिहास पर हामारा ऐसा आदर और आग्रह है। कश्मीर के इतिहास में कल्हण कवि की राजतरंगिणी ही मुख्य है । यद्यपि कल्हण के पहले सुनत, क्षेमेंद्र, हेलाराज, नीलमुनि, पद्ममिहिर और श्री छविल्लभट्ट आदि ग्रंथकार हुए हैं, किंतु किसी के ग्रंथ अब नहीं मिलते । कल्हण ने लिखा है कि हेलाराज ने बारह हजार ग्रंथ कश्मीर के राजाओं के वर्णन के एकत्र किये थे। नीलमुनि ने इस इतिहास में एक बड़ा सा पुराण ही बनाया था। किंतु हाय ! अब ने ग्रंथ कहीं नहीं मिलते। कश्मीर के बचे बचाये जितने ग्रंथ थे सब दुष्टों ने जला दिए । आर्यों की मंदिर मूर्ति आदि में कारीगरी कीर्तिस्तंभादिकों के लेख और पुस्तकों का इन दुष्टों के हाथ से समूल नाश हो गया । परशुराम जी ने राजाओं का शरीरमात्र नाश किया, किंतु इन्होंने देह, बल, विद्या, धन, प्राण की कौन कहै कीर्ति का भी नाश कर दिया। कल्हण ने जयसिंह के काल में सन् १९४८ ई. में राजतरंगिणी बनाई । यह कश्मीर के अमात्य चपक का पुत्र था और इसी कारण से इस को इस ग्रंथ के बनाने में बहुत सा विषय सहज ही में मिला था। इस के पीछे जोनराज ने १४१२ में राजावली बना कर कल्हण से लेकर अपने काल तक के राजाओं का उस में वर्णन किया । फिर उसके शिष्य श्री वरराज ने १४७७ में एक ग्रंथ और बनाया । अकबर के समय में प्राज्यभट्ट ने इस इतिहास का चतुर्थ खंड लिखा । इस प्रकार चार खंडों में यह कश्मीर का इतिहास संस्कृत में श्लोकबद्ध विद्यमान है। महाराज रणजीत सिंह के काल में जान मैकफेयर नामक एक यूरोपीय विद्वान ने कश्मीर से पहले पहल इस ग्रंथ का संग्रह किया । विल्सन साहब ने एशियाटिक रिसर्चेज़ में इस के प्रथम छ सर्ग का अनुवाद भी किया था। इसी राजतरंगिणी ही से यह इतिहास मैंने लिखा है । इस में केवल राजाओं के समय और बड़ी बड़ी घटनाओं का वर्णन है। आशा है कि कोई इस को सविस्तार भी निर्माण कर के प्रकाश करेगा। राजतरंगिणी छोड़कर और और भी कई ग्रंथों और लेखों से इस में संग्रह किया है । यथा आइने अकबरी.. का फारसी इतिहास, एशियाटिक सोसाइटी के पत्र, विल्सन, विल्फर्ड, प्रिंसिप, कनिगहम टॉड, विलिअन्स, गोशेन और ट्रायर आदि के लेख, बाबू जोगेशचंद्रदत्त की अंगरेजी तवारीख, दीवान कृपाराम जी की फारसी तवारीख आदि । बहुतों का मत है कि कश्मीर शब्द कश्यपमेरू का अपभ्रंश है । पहले पहल कश्यप मुनि ने अपने । भारतेन्दु समग्र ७०८