पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७५६

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Mk 20 80k अष्टम तरंग में भी कायस्थों की बहुत निंदा की है । (८ त. ८९ श्लो. आदि) कैदियों को भांग से रंग कर कपड़ा पहनाते थे । (८ त. ९३ श्लो.) कल्याण के हेतु लोग भीष्मस्तवराज, गजेंद्रमोक्ष, दर्गापाठ आदि का पाठ करते थे (८ त. १०६ श्लो.) टकशाल का नाम टकशाला । (८ त. १५२ श्लो.) उस समय में भी राजाओं को इस बात का आग्रह होता था कि उन्हीं के नाम के सिक्के का प्रचार विशेष हो । इस समय (बारहवीं शताब्दी के मध्य में) कालिंजर का राजा कल्ह था । (८ त. २०५ श्लो.) हर्प का सिर काट कर लोगों ने माले पर चढ़ाया, किंतु इसके पहले किसी राजा के सिर काटने की चाल नहीं थी । हर्ष का व्याख्यान इस तरंग में अवश्य पढ़ने के योग्य है, जिससे श्रृंगार, वीर आदि रसा का हृदय में उदय हो कर अंत में वैराग्य आता है । राजतरंगिणी में राम लक्ष्मण की मूर्ति का पृथ्वी के भीतर से निकलना इस बात का प्रमाण है कि मूर्तिपूजा यहाँ बहुत दिन से प्रचलित है। इस में देवी देवता, भूत प्रेत और नागों की अनेक प्रकार की आश्चर्य कथा हैं जिनका ग्रंथ पढ़न के भय से यहाँ नहीं लिखा । और भी वृक्ष, शस्त्र, औषधि और मणि आदिकों के अनेक प्रकार के वर्णीन हैं । कोई महात्मा इस का पूरा अनुवाद करेंगे नो साधारण पाठकों को इस का पूर्ण आनंद मिलेगा । इस में एक मणि का वर्णन बड़ा आश्चर्यजनक है । एक बर राजा नदी पार होना चाहता था किंतु कोई सामान उस समय नहीं था । एक सिद्ध मनुष्य ने जल में एक मणि फेक दी, उस से जन हट गया और सैना पार उतर गई । फिर दूसरी मणि के बल से इस मणि का उठा लिया। एक कहानी ऐसी और भी प्रसिद्ध है कि किसी राजा की अंगूठी पानी में गिर पड़ी । राजा को उस अमूल्य का बड़ा शोच हुआ । यह देखकर मंत्री ने अपनी अंगूटी डोरे में बाँधकर पानी में डाली । मंत्री के अँगूठी के रत्न में ऐसी शक्ति थी कि अन्य रत्नो को यह खींच लेती थी. इस से राजा की अंगूठी मिल गई। हर्षदेव। हर्ष देव के विषय में यद्यपि राज तरंगिणी में कुछ विशेष नहीं लिखा है किंतु इस राजा का नाम भारतवर्ष में बहुत प्रसिद्ध है और एक इस बात की प्रसिद्धि पर कि रत्नावली इत्यादि काव्यग्रंथ उसके समय में बने थे । इस राजा पर मेरी विशेष दृष्टि पड़ी । इस का समय विक्रम और कालिदास के समय के बहुत पीछे स्पष्ट होने से इस बात की मुझको बड़ी चिंता हुई कि वह कौन पुण्यात्मा श्री हर्ष का धावक ने जिसकी कीर्ति आचंद्रार्क स्थिर रक्खी है । वह श्री हर्ष निश्चय मम्मट, कालिदासादि के पूर्व और वत्सराज के पश्चात हुआ है । वंशावलियों में खोजनो से कई इर्ष मिले । यथा मालवा के राजाओं में एक हषमेघ १९१ ई. पू. हुआ है । यह युद्ध में मारा गया और कोई विशेष कथा इसकी नहीं है । छतरपुर में एक लिपि में श्री हर्ष नाम का एक राजा बिहल का पुत्र यशोधर्मदेव का पिता लिखा है । और यह लिपि श्री हर्ष के प्रपौत्र की सं. १०१९ की है । एक श्री हर्ष नैपाल का राजा ३६३१ ई. पू. हुआ है । एक विक्रमादित्य जिस का दूसरा नाम हर्ष था मातृगुप्त के समय में हुआ । शक १००० में एक विक्रम और इस के कुछ ही पूर्व कान्यकुब्ज में एक हर्ष नामक राजा हुआ । कालिदास और श्री हर्ष कवि भी इसी काल में थे । जैन लोगों ने लिखा है कि वाराणसी के जयंतीचंद नामक राजा के दरबार में श्री हर्ष कवि था । (१०८९ शक) यह जैनों का भ्रम है । और हर्षों को छोड़ कर कान्यकुब्ज के हर्ष को यदि धावक कवि का स्वामी माने तभी कुछ लड़ सब बातों की मिलेगी । जैसा रत्नावली में जिस वत्सराज का चरित है वह कलियुग के प्रारंभ में उरुक्षेप का पुत्र वत्स था ! शुनकवंश का प्रथम राजा एक प्रद्योत हुआ है । (३००० ई. पू.) संभव है कि इसी प्रद्योत की बेटी वत्स को व्याही हो । धावक ने एक उदयन का भी वर्णन किया है । वह पाडवों के वंश की अंतावस्था में हुआ था । यह सब अति प्राचीन हैं । इस से ३६३१ ई०पू. के नेपालवाले श्रीहर्ष के हेतु धायक ने काव्य बनाया है, यह नहीं हो सकता । कन्नौज में जो श्री हर्ष नामक राजा था, जिसकी सभा में श्रीहर्ष नामक कवि का पिता रहता था वही श्री हर्ष धावक का स्वामी था । भारतेन्दु समग्र ७१२