पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७५७

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छतरपुर की लिपि का काल १०१९ है । चार पुस्त पहले यह काल ८५० सवत में जा पड़ेगा । यशोविग्रह के पहले कदाचित राजविप्लव हुआ हो और श्री हर्ष से यशोविग्रह तक दो एक राजे और हो गए हों तो आश्चर्य नहीं । प्रशस्ति के 'मापालमाला सूदिवंगतासु' इस पद से ऐसा झलकता भी है । यशोविग्रह से लेकर जयचंद तक नामों में जितनी प्रशस्ति मिली हैं उन में बड़ा ही अंतर है । जो ताम्रपत्र मैंने देखा है उसका क्रम यह है - यशोविग्रह, महीचंद, चंद्रदेव, मदनपाल, गोविदेंद्र और जयचंद । जैनों ने इसी जयचंद्र को जयंतीचंद्र लिखा है और काशी का राजा लिखने का हेतु यह है कि "तीर्थानि काशीकुशिकोत्तरकौशलेन्द्रस्थानीयकानि परिपालयताभिगम्य' इस पद से स्पष्ट है कि काशी भी उस समय कन्नौजवालों के अधिकार में थी. इसी से काशी का राजा लिखा । और जयचंद्र के प्रपितामह या उस के भी पिता के काल में जो नीहर्ष कवि था उस को जयचन्द्र के काल में लिख दिया। छतरपुर की लिपि में जो श्रीहर्ष राजा का पुत्र यशोधर्म लिखा है, वही यशोविग्रह मान लिया जाय और जयचंद्र उस के बड़े पुत्र का वंश और छतरपुर की लिपि वाले छोटे पुत्र के वंश में हैं. ऐसा मान लीजिए तो विरोध मिट जायगा । चंद्रदेव ने 'श्रीमद्गाधिपुराधिराज्यमखिल दोविक्रमेनार्जितम्' इस पर से कान्यकुब्ज का राज्य अपने बल से पाया यह भी झलकता है । इससे यह भी संभव है कि श्रीहर्ष का राज्य कन्नौज में शेष न रहा हो और चंद्रदेव ने नए सिरे से राज्य किया हो । यशोविग्नह के वंश की कई शाखा हैं इसका प्रमाण प्रशस्तियों के भिन्न भिन्न नामों ही से है । इस से ऐसा निश्चय होता है कि संवत् ९०० के लगभग जो श्रीहर्ष नामक कान्यकुब्ज का राजा था, उसी के हेतु रत्नावली आदि ग्रंश्च बने हैं । कालिदास, विक्रम, भोज सब इस काल के सौ बरस के आस पास पीछे उत्पन्न हुए हैं और इसी से कालिदास ने मालविकाग्निमित्र में धावक का परिचय दिया है । कल्हण कवि ने जो राजतरंगिणी में कालिदास या इसे श्रीहर्ष का नाम नहीं दिया उसका कारण यही है कल्हण का स्वभाव असहिष्णु था और कालिदास से कश्मीर के राजा भीमगुप्त से (जो २७५ ई. के काल में राज्य करता था) महा बैर था. इस से उसने कालिदास का या उसके स्वामी विक्रम का नाम नहीं लिखा । कल्हण प्राय : सभी राजाओं की कुछ कुछ निंदा कर देता है, जैसा इसी हर्षदेव की, जिसकी और स्थानों में बड़ी स्तुति है, कल्हण ने निंदा की है । और ग्रंथकारों के मत में श्रीहर्ष बड़ा न्यायपरायण स्वयं महा कवि अति उदार था । पुकार सुनने के हेतु महल को भित्तियों पर घटियाँ लटकती थीं । रात दिन गुणियों से घिरा रहता था और अंत में संसार को असार जानकर त्यागी हो गया । कल्हण से हर्षराज से द्वेष का यह कारण है कि इस के स्वामी जयसिंह का बाप सुस्सल हर्ष के पोते भिक्षाचर को मार कर राज्य पर बैठा था। १. पूर्व में जीन के काल में एक हर्ष हुआ है यह लिख भी आए हैं। काश्मीर कुसुम ७१३