पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८१

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हँसनि ननि चितवनि मुसुकानि सुघराई 'हरिचंद' बोनि चनि बतरानि पीत-. रसिकाई मिलि मति पय पान है। पट फहरान मिलि धीरज मिटाए लेत । मोहि मोहि मोहन-मई री मन मेरो भयो जुलफै तिहारी लाज-कुलफन तोरै प्रान, 'हरीचंद' भेद ना परत कछु जान है । प्यारे नैन-सैन प्रान संग ही लगाए लेत ।८ कान्ह भये प्रानमय प्रान भये कान्हमय । हों तो तिहारे दिखाइबे के हित हिय में न जानो परै कान्ह है कि प्रान है ३ जागत ही रही नैन उजार सी । करि कै अकेली मोहिं जात प्राननाथ अबै आए न राति पिया 'हरिचंद' लिए कौन जानै आय कब फेर दुख हरिहौ। कर भोर लौ हौं रही भार सी । औध को न काम कछु प्यारे घनश्याम बिना है यह हीरन सों जड़ी रंगन आप के न जीहैं हम जो पै इतै धरिहौ । तापै करी कछु चित्र चितार सी । 'हरीचंद' साथ नाथ लेन मैं न मोहिं कहा देखो जू लालन कैसी बनी है नई लाभ निज जीअ मैं बताओ तो बिचरिहो। यह सुंदर कंचन-आरसी ।९ देह संग लेते तो टहलहू करत जातो सोइ तिया अरसाय कै सेज पै एहो प्रान-प्यारे प्रान लाइ कहा करिहौ ।४ सो छबि लाल बिचारत ही रहे । गुरु-जन बरजि रहे री बहु भाँति मोहि पोछि रुमालन सों श्रम-सीकर संक तिनहूँ की छाँड़ि प्रेम-रंग राँची मैं । भौरन को निरुवारत ही रहे । त्यों ही बदनामी लई कुलटा कहाई हौं त्यौं छबि देखिबे को मुख तें कलंकिनिहु बनी ऐसी प्रम-लीक खाँची मैं । अलकै 'हरिचंद जू' टारत ही रहे । कहै 'हरिचंद' सबै छोइयो प्रान-प्यारे काज द्वैक घरी लौ जके से खरे यानै जग मूल्यौ रह्यौ एक भई साँची मै । बृषभानुकुमार निहारत ही रहे ।१० नेह के बजाय बाज छोड़ि सब लाज आज बोल्यो करै नूपुर भवन के निकट सदा, घूघट उघारि ब्रजराज-हेतु नाची मैं । पद-तल लाल मन मेरे बिहरयौ करै । बाढ्यौ करै दिन ही छिन ही छिन बाजी का बसी धनि परि गेम-रोम मन. कोटि उपाय करौ न बुझाई । मन मुसुकानि मंद मनहि हंस्यौ करै । दाहत लाज समाज सुखै गुरु की 'हरिचंद' चलनि मुरनि बतरानि चित, भय नींद सबै सँग लाई । छाई रहे छबि जग दुगन भरयौ करें । छीजत देह के साथ में प्रानहु प्रानह ते प्यारौ रहै प्यारौ तू सदाई तेरो, हा 'हरिचंद' करौं का उपाई । पीरो पट सदा जिय बीच फहर्यो करै ।११ क्योंह्र बुझे नहिं आँसू के नीरन बृजवासी बियोगिन के घर मैं लालन कैसी दवारि लगाई।६ जग छोड़ि के क्यौं जनमाई हमें । छाडि कै मोहिं गए मथुरा मिलिबो बड़ी दूर रहयो 'हरीचंद' कवर्ग नहँ त्राय भई पटरानी । दई इक नाम-धराई हमैं । जो साध लीनी तो जोग सिखाया जग के सगरे सुख सों ठगि के भए 'हरिचंद अनुपम ज्ञानी । महिबे को यही है जिवाई हमै । गांप मों जो पै भाग रजपून गाड़ी केहि बैर सों हाय दई बिधिना किन जाद को आपने जानी । दुख देखिबेही को बनाई हमें ।१२ मारत हौ अबनागन को नम कहा कहीं प्यारे जे बियोग मैं तिहारे चित, याही मैं बीरता आय खुटानी १७ बिरह-अनल लूक भरकि भरकि उठे। बाजी कर बंसी धनि बाजि बाजि श्रवनन कैसे कै बिताऊँ दिन जोबन के हा-हा काम, जोरा-जोरी मुख-छबि चितहि चुराए लेत । कर लै कमान मोपै तरकि तरकि उठे।।। हँसनि हँसावति जग सों तिहारी मुरि भलै नाहिं हँसनि निहारी 'हरिनंद' नैसी. मुरनि पियारी मन सब सों मुराए लेत । बाँकी चितवनि हिय फरकि फरकि उठे प्रेम माधुरी ४१