पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८३०

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इस वर्णन से यह बात बहुत स्पष्ट हो गई कि गोलोक का होना हिन्दू लोग उस काल से मानते हैं जब कि रामायण बनी। ३२वें सर्ग में तैत्तिरीय शाखा और कठकलाप शाखा का नाम है। इस से प्रकट होता है कि वेद उए काल तक बहुत से हिस्सों में बँट चुके थे। रामजी ने वन जाने की राह इस तरह बयान की गई है । अयोध्या से चल कर तमसा अर्थात् टोंस नदी के पार उतरे । फिर वेदश्रुति.२ गोमती, स्यंदिकारे और गंगा पार होते हुए प्रयाग आये और वहाँ से चित्रकूट (जोकि रामायण के अनुसार १० कोस है) गए । यह बिल्कुल सफर उन्होंने पाँच दिन में किया । और सुमंत उनको पहुंचा कर शृंगवेरपुर अर्थात सिंगरामऊ से दो दिन में अयोध्या पहुँना । पहली बात से प्रकट हुआ कि पुराने जमाने के कोस बड़े होते थे । और दूसरी बात से विदित हुआ कि सड़क उस समय में भी बनाई जाती थी, नहीं तो इतनी दूर की यात्रा का पांच दिन में तै करना कठिन था । भरत जी जब अपने नाना के पास से जो कि कैकय अर्थात् गक्कर देश का राजा था, आने लगे तो उसने कई बहुत बड़े और बलवान कुत्ते दिये और तेज़ दौड़नेवाले गदहों (खच्चर) के रथ पर उन को बिदा किया । वे सिंधु और पंजाब होते हुए इक्षुमती को पार कर अयोध्या आये । इससे दो बात प्रकट हुई ; एक तो यह कि उस काल में कैकय देश के गदहे और कुत्ते अच्छे होते थे, दूसरे यह कि वहाँ की हिन्दुस्तान से राह सिंधु देकर थी । ७१वें सर्ग में मूर्तियों का वर्णन है, इस से दयानंद सरस्वती इत्यादि का यह कहना कि रामायण में कहीं मूर्तिपूजन का नाम नहीं है अप्रमाण होता है। इसी स्थान में निषाद का लड़ाई की नौकाओं के तैयार करने का वर्णन है, जिस से यह बात प्रमाणित होती है कि उस काल के लोग स्थल की भाँति पानी पर भी लड़ सकते थे । दक्षिण के लोगों की सिर में फूल गूंधने की बड़ी प्रशंसा लिखी है । इससे यह बात झलकती है कि उत्तर के देश में फूल गूंधने का विशेष रिवाज नहीं था। १०८ सर्ग में जापालि मुनि ने चार्वाक का मत वर्णन किया है । और फिर १०९ सर्ग में बुध का नाम और उन के मत का वर्णन है । इससे प्रगट है कि ये दोनों वेद के विरुद्ध मत उस समय में भी हिन्दुस्तान में फैले हुए थे। अभी हम ऊपर बालकाण्ड में जैनियों के उस काल में रहने का जिक्र कर चुके हैं तो अब ये सब बातें रामायण के बनने के समय, बुध के जन्म का और बौद्ध और जैन मत अलग होने के समय की विवेचना में कितनी हलचल डालेंगी प्रगट है। आरण्यकांड-चौथे सर्ग के २२३ श्लोक में लिखा है कि असुरों की यह पुरानी चाल है कि वे अपने मुदै गाड़ते हैं । इस से प्रगट है कि वेद के विरुद्ध मत माननेवालों में यह रीति सदा से चली आती है। किष्किंधाकांड-१३वे सर्ग के १६ श्लोक में कलम अर्थात् जोघरी के खेत का बयान है, और कोष में "लेखनी कलमित्यपि” लिखा है । इस वाक्य से प्रगट होता है कि कलम लिखने की चीज़ का नाम संस्कृत में भी है और वह और चीजों के साथ जोंधरी का भी होता था; और इसी से यह भी साफ़ हो जाता है कि सिवा ताड़ के पत्र के कागज़ पर भी आगे के लोग लिखते थे, क्योंकि ताड़ पर मिटने के डर से सिर्फ लोहे की कलम से लिखा जा सकता है जैसा कि अब तक बंगाले और ओड़ीसे में रिवाज है। १. वेद में ब्रहम के धाम के वर्णन में लिखा है कि वहाँ अनेक सींगों की गऊ हैं। २. वेदसा नाम की एक छोटी नदी गोमती में मिलती है, शायद उसी का नाम वेदश्रुति लिखा है। ३. जिस को अब सई कहते है। ४. यह बड़े संदेह की बात है, अब जो चित्रकूट माना जाता है वह प्रयाग से तीन चार मंजिल है पर यहां दस कोस लिखा है । इस दस कोस से यह आशय है कि वहाँ से उस पर्वत की श्रेणी (लाइन) आरंभ होती है, पर जहाँ डेरा किया था वह स्थान दूर होगा । ५. इस विषय के लिये 'सज्जनविलास' देखो। भारतेन्दु समग्र ७८६