पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

देखि गुलाब लजाये। सुकुमार सबै अंग भायो । 1 सो कर क्यों है सुहायो न आज तमासे लखात हैं। करौ मिलि भेद की बात है। हम आजु निहारन जात हैं।४१ गरीब-नेवाज क्यों नाम धरायो ।३९ कोमल क्यों करतार बनायो ।४० बौरी बनि दौरि चारु पौन ऐसी धाई है। ऐसी ही जो पे सुभाव रह्यो तो तेरे बिछुरे ते प्रान कंत के हिमंत अंत तेरी प्रम-जोगिनी बसंत बनि आई है ।३४ क्यौं इन कोमल गोल कपोलन को पीरो तन पर्यो फूली सरसां सरस सोई मन मुरझानो पतझार मनौ लाई है । त्यौं 'हरिचंद जू पंकज के दल सो सीरी स्याँस त्रिविध समीर सी वहति सदा अखियाँ वरसि मधु झरि सी लगाई है। अमृत से जुग ओठ लसे नव पल्लव 'हरीचंद' फूले मन मैन के मसूसन सो ताही सो रसाल बाल बदि के बौराई है। पाहन सो मन होते सबै अंग तेरे बिछरे ते प्रान कंत के हिमत अंत तेरी प्रेम-जोगिनी वसंत बनि आई है ।३५ आओ सबै जुरि के बृज गाँव के देखन को जे रहे अकुलात एरी प्रानप्यारी बिन देखे मुख तेरो मेरे जिय मैं बिरह-घटा घहरि वहरि उठे। चार चाइने ले दुरबीनन धाओ त्योंही 'हरिचंद सुधि भूलत न क्योंह तेरो लाँबो केस रैन दिन छहरि छहरि उठे। सास-जेठानी-सखी सँग की 'हरिचंद' गड़ि गड़ि उठत कँटीले कुच कोर तेरी । घूघट टारि निवारि भयै पिय कौं सारी सो लहरदार लहरि लहरि उठे। सालि सालि जान आये आधे नैन-बान तेरे । चूंघट की फहरानि फहरि फहरि उठे ।३६ एक ही गांव में बास सदा घर बैठे सबै गुरु लोग जहाँ तहाँ पुनि पाँचएँ सातएँ आवत जात की आई बधू लखि सास मई खरी । देन उराहनो लागी तबै निसि को अति हम कौन उपाय करें इनको मोरी न जानत रीत री। ढीठ तिहारो बडो 'हरिचंद' न देखत पिय प्यारे तिहारे बिना अँखियाँ मेरी सु ऐसी दसा करी । आँचर दीनों सखी मुख मैं कहि सारी फटी तो बनाइहै दूसरी ।३७ यह संग मैं लागियै डोलें.सदा बिन देखे न धीरज आनती हैं । प्रानपियारे तिहारे लिये सखि छिनहू जो बियोग परै 'हरिचंद' बैठे हैं देर सों मालती के तर । तो चाल प्रले की सु ठानती हैं । तू रही बातें बनाय बनाय मिले बरूनी में थिरै न झपैं उझ4 न बृथा गहिकै कर सों कर । पल मैं न समाइबो जानती है । तोहि घरी छिन बीतत है 'हरिचंद' पिय प्यारे तिहार निहारे बिना उतै जुग सो पलह भर । अँखियां दुखियाँ नही मानती हैं ।४३ तेरी तो हाँसी उतै नहिं धीरज व्यापक ब्रहम सबै थल पूरन नौ घरी भद्रा घरी में जरै घर ।३८ है हमहूँ पहिचानती हैं। दीनदयाल कहाइ के धाइ के दीनन पै बिना नंदलाल बिहाल सदा सों क्यों सनेह बढ़ायो । 'हरिचंद' न ज्ञानहि ठानती हैं । त्यों 'हरिचंद' जू बेदन में करूनानिधि तुम ऊधौ यह कहियो उन सों नाम कहो क्यों गनायो । हम और कछु नहिं जानती हैं । एती रुखाई न चाहिए तापें कृपा पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना करिकै जेहि को अपनायो । अँखियाँ दुखियाँ नहीं मानती हैं ।४४ भारतेन्दु समग्र ४४ पास इही नहिं जानती है। आस न चित्त में आनती हैं। 'हरिचंद' महा हठ ठानती हैं । दुखियाँ नहिं मानती है ।४२