पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८४२

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उपद्रव तो मुहम्मद महात्मा की मृत्यु के साथ ही हुआ, किंतु तीसरे खलीफा (महन्त) के काल से उपद्रव बढ़, गया । यह हम पक्षपात छोड़ कर कह सकते हैं कि ऐसे घोर समय में आदरणीय अली ने बड़ा संतोष प्रकाश किया था । शाम (Asia minor) के लोग इन सब उपद्रवों की जड़ थे । उन में भी कूफा के सन् ६५६ में इन उपद्रवियों ने उसमान महंत का व्यर्थ बध किया और आदरणीय अली को खलीफा बनाया । यही समय मुहर्रम के अन्याय की बड़ है । उसमान खलीफा के समय में महात्मा मुहम्मद ने निज शिष्यों में एक मनुष्य मुआविया (जो इन का गोत्रज भी था) नामक शाम और मिस्र आदि देशों में गवर्नर था । जब अली खलीफा हुए तो इस मुआविया ने चाहा कि उनको जय करके आप खलीफा हो । यहाँ तक कि अनेक युद्धों में मुसलमानों पर अपना अधिकार जमाता गया । सन् ६६१ में पाँच बरस खलीफा रह कर अली एक दुष्ट के हाथ से मारे गये । इन के पीछे इन के बड़े पुत्र और महात्मा मुहम्मद के नाती इमाम हसन खलीफा हुए, किन्तु मुआविया ने इन को भी अपने राज्य-लोभ से भाँति-२ का कष्ट देना आरंभ किया । उस समय के लोग ऐसे क्रूर, लोभी और दुष्ट थे कि धर्म छोड़ कर लोभ से बहुत मुआविया से मिल गए और अपने परमाचार्यकी एक मात्र संतति हसन-हुसैन को दुःख देने लगे । इमाम हसन यहाँ तक दुःखी हुए कि चार लाख साल पिंशन पर निराश हो कर खिलाफत से बाज आए । कुछ ऊपर छ महीनेमात्र ये खलीफा थे । किन्तु इस पिशन के देने में भी मुआविया बड़ी देर और हुज्जत करता रहा । यहाँ तक कि सन् ४९ हिजरी (६७० ई.) में मुआविया के पुत्र यजीद ने इमाम हसन की एक दुष्ट स्त्री जादा के द्वारा उनको विष दिलवाया । कहते हैं कि दो बेर पहिले भी इस दुष्टा स्त्री ने इस लोभ से कि वह यजीद की स्त्री होगी इमाम को विष दिया था, किन्तु तीसरी बार का विष ऐसा था कि उससे प्राण न बच सके और इस असार संसार को छोड़ गए । पंद्रह पुत्र और आठ कन्या इनको हुई थीं । अब लोग इन दुष्टों के धर्म को देखें कि साक्षात् परमाचार्य ईश्वर-प्रिय 'वरंच ईश्वर-तुल्य'. अपने गुरु की संतति और गुरु-पुत्र और स्वयं भी गुरु उस का इन लोगों ने कैसे आनंद से बध किया । इमाम हसन के मरने के पीछे यजीद बहुत प्रसन्न हुआ और अपने राज्य को निष्कंटक समझने लगा। अब केवल इन लोगों की दृष्टि में इमाम हुसैन बचे जो कि रात दिन खटकते थे, क्योंकि धर्मी और श्रद्धालु लोग इनके पक्षपाती थे । मुआविया और उसके साथी लोग अब इस सोच में हुए कि किसी प्रकार इनको मी समाप्त करा तो निद्वैद राज्य हो जाय । सन ४९ के अंत में मुआविया मर गया और यज़ीद नारकी मुसलमानों का महंत हुआ । यह मद्यप परस्त्रीगामी और बेईमान था, इसी हेतु इसके महंत होने से अनेक लोगों ने अप्रसन्नता प्रकट की । मक्क और मदीन में सभ्य और अनेक प्राचीन लोग उसके धर्म शासन से फिर गए और अनेक लोग नगर छोट छोड़ कर दूर जा बसे । इमाम हुसैन का तो मानो वह शत्रु ही था । मदीना के हाकिम को लिख भेजा कि या तो इमाम हुसैन हमारा शिष्यत्व स्वीकार करे या उनका सिर काट लो । मदीने के हाकिम ने यह वृत्त इमाम हुसैन सं कहा और उन पर अधिकार जमाने को नाना प्रकार की उपाधि करने लगा । यह बिचारे दुखी हो कर अपने नाना और मां की समाधि पर बिदा होने गए और रो रो कर कहने लगे कि नाना तुम्हारे धर्म के लोग निरपराध हुसैन का कष्ट देते हैं. हसन को विष दे कर मार चुके पर अभी इन को संतोष नहीं हुआ । तुम्हारे एक मात्र पुत्र और उत्तराधिकारी दीन हुसैन को महंतो का पद त्याग करने पर भी यह लोग नहीं जीता छोड़ा चाहते । इसी प्रकार अनेक विलाप करके अपनी मां और भाई की समाधि पर से भी बिदा हुए और अपने सपत्नी नानियों और संबंधियों से बिदा हो कर मक्के की ओर चले । इसी समय कूफा के लोगों ने इमाम को एक पत्र लिखा । उस में उन लोगों ने लिखा कि "हम लोग यज़ीद मद्यप के धर्मशासन से निकल चुके हैं, आप यहाँ आइए. आप ही वास्तव में हमारे गुरु हैं, हम लोग आप के चरण में रहेंगे और प्राण पर्यंत आप से अलग न होंगे । इस बात की हम शपथ करते हैं ।" इस पत्र पर क्फा के हज़ारों मनुष्यों के हस्ताक्षर थे । इस पत्र को पाकर इमाम ने कूफा जाना चाहा । उनके बंधुओं ने उन से बहुत कहा कि कूफे के लोग झूठे होते हैं, आप उन का विश्वास न कीजिए । पर उनके ईश्वर की शपथ खाने पर विश्वास करके इमाम ने किसी का कहना न सुना और अपने मक्का की यात्रा की समय अपने चचेरे भाई मुसलिम को कूफियों के पास भेजा कि उनको मक्का से लौटती समय इमाम के कूफा आने का सम्बाद पहिले से दें । इनको इधर भेज कर आप बंदना के हेतु मक्के चले । मुसलिम जब कुफे में पहुँचे तो इनको वहाँ के लोगों ने बड़ा शिष्टाचार किया और इमाम हुसैन के गुरुत्व को सबने स्वीकार किया । यह देख कर इन्होंने इमाम को पत्र लिखा कि आप निश्शंक कूफा आइए; भारतेन्दु समग्र ७९८