पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८४३

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Wyry यहाँ के लोग सब आप के दासानुदास हैं और तीस हज़ार आदमियों ने आप को गुरु माना है । इस पत्र के विश्वास पर इमाम हुसैन कूफे की ओर और भी निश्चिंत हो कर चले और बांधवों का वाक्य स्वीकार न किया । किन्तु शोच की बात है कि बिचारे मुसलिम वहाँ मारे जा चुके थे । कारण यह हुआ कि यज़ीद ने जब सुना कि कूफा में मुसलिम इमाम हुसैन का आचार्यत्व चला रहे हैं तो उसने वहाँ के हाकिम को बदल दिया और उबैदुल्लाह ज़ियाद-नंदन को हाकिम बनाया और आज्ञा भेजा कि हुसैन को बकरे की भाँति जिबह करो और मुसलिम को तो जाते ही मार डालो । जब ज़ियाद-पुत्र शाम का हाकिम हुआ तो मुसलिम के पकड़ने की फिक्र में हुआ । पहिले तो कूफे के लोग मुसलिम के साथ उस के मकान पर चढ़ गए, परंतु जब उसने उन लोगों को धमकाया और लालच दिया तो एक एक कर के सब मुसलिम का साथ छोड़ कर चले गए और मुसलिम बिचारे भाग कर एक घर में जा छिपे । परन्तु लोगों ने उन को वहाँ भी जाने न दिया और पकड़ लाए और इब्ने ज़ियाद की आज्ञा से उनका सिर काटा गया और उनका साथी हानी भी मारा गया, वरंच उनके दो लड़कों को भी मार डाला । महात्मा मुसलिम मरने के समय यही कहते थे कि मुझे अपने मरने का कष्ट नहीं, क्योंकि सत्य मार्ग स्थापन में मेरे प्राण जाते हैं । मुझे शोच यही है कि मेरे पत्र के विश्वास पर इन कृतघ्नी और विश्वासघाती कूफा वालों के विश्वास पर इमाम हुसेन यहाँ चले आबैंगे और उन महापुरुष के साथ भी ये कापुरुष कुपुरुष यही व्यवहार करेंगे और आचार्य मुहम्मद की संतान को निरपराध ये लोग वध कर डालेंगे । हाय ! उनके भाई मुसलिम कूफे में यों अनाथ की भाँति मारे गये, यह हुसैन को नहीं मालूम था और वे मंजिल मंजिल इधर ही बढ़े आते थे यहाँ तक कि जब शाम के हाते के भीतर पहुंच चुके तब उन्होंने मुसलिम का मरना सुना । उस समय आपने अपने साथ के लोगों से कहा कि भाई अब तुम सब लोग अपने देश लौट जाओ, हम तो प्राण देने जाते हैं । उस समय वे सब लोग, जो अरब से साथ आए थे, प्राण के भय से अपने सच्चे स्वामी को छोड़ कर चले गये । यहाँ तक कि हज़ारों की जमात में केवल बहत्तर मनुष्य साथ रह गए । जब इन लोगों के साथ इमाम सरलफ नामक स्थान पर पहुंचे तो हुर नामी उबेदुल्लाह का सेनापति दो हज़ार सिपाहियों के साथ मिला और वह इन लोगों को घेर कर शाम की तरफ बढ़ता हुआ ले चला । इस समय इमाम ने फिर सब लोगों को जाने को कहा, परंतु अब तो वे लोग साथ थे जो सच्चे बंधु थे । ऐसे कठिन समय में कौन साथ छोड़ कर जा सकता था । इसी समय शाम से और मी फौजें आने लगी । इमाम ने उन लोगों को बहुत समझाया और कहा कि हम यज़ीद के राज्य के बाहर चले जायें, किन्तु किसी ने उनकी बात न सुनी । जब इमाम का डेरा करबला नामक स्थान में पड़ा था, उस समय शिमर नामक इब्ने ज़ियाद के सैनापति ने फुरात नहर का पानी भी इन पर बंद कर दिया । एक तो गरमी के दिन, दूसरे सफर को गरमी और उस पर यह आपत्ति कि पानी बंद । शिमर और उमर इस लश्कर में मुख्य थे । यदि इन में से किसी को भी कभी दया और धर्म सूझता भी, लोभ उसे हटा देता । कहते हैं कि यज़ीद हिमदानी ने साद से जाकर इमाम के वास्ते पानी मांगा और कहा कि क्या तुम को ईश्वर को मुंह नहीं दिखलाना है जो अपने गुरुपुत्र को निरपराध बध करते हो ? इस के उत्तर में उस दुष्ट ने कहा कि हम है की हाकिमी को धर्म से अच्छी समझते हैं । अंत में उबैदुल्लाह ने सादपुत्र को आज्ञा लिखा कि क्यों इतनी देर करते हो ? या तो हुसैन का सिर लाओ या उनको यजीद के मत में लाओ । इस आज्ञा के अनुसार (सन् ६१ हिजरी के) ९वीं मुहर्रम की संध्या को अट्ठाईस हज़ार सैना से उमर ने इमाम का लशकर घेर लिया । इमाम उस समय संध्या की वंदना में थे । उठ कर सेना से कहा कि रात भर की मुझे और फुरसत दो । उमर ने इस बात को माना । इमाम ने साथ के लोगों से कहा कि अब अच्छा है चले जाओ और मेरे पीछे प्राण मत दो । परंतु किसी ने न माना और सब मरने को उद्यत हुए । रात भर सब लोग ईश्वर की स्तुति करते रहे । सबेरे इमाम ने स्त्रियों को धैर्य और संतोष का उपदेश दिया और आप ईश्वर का स्मरण करते हुए सब हथियार बाँध कर अपने साथियों के साथ मरने को निकले । इनके साथ जितने लोग मारे गए उनकी संख्या बहत्तर है । इनमें बत्तीस सवार और चालीस पैदल थे । सरदारों में मुसलिम बिन उनका जरगामः, वहब उन्स, मालिक, हुज्जाज, ज़हीर, असदी, आमिर, उम्मग, उमरान, शईब यभर, शूदब और हबीब इब्ने मज़ाहिर (एक वृद्ध मनुष्य) थे और इमाम के नातेदारों में इनकी बहिन ज़ैनब के दो लड़के मुहम्मद और ऊन, और तीन मुसलिम के भाई, पाँच इमाम हुसैन के विमात्र भाई अब्बास, उसमान, मुहम्मद अब्दुल्लाह और जाफर और तीन पुत्र इमाम हसन के अब्दुलाह, जैद और कासिम (किसी के मत से पाँच अबूबकर और उमर भी) और एक पुत्र इमाम हुसैन के अली

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पंच पवित्रात्मा ७९९