पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८४८

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कार्तिक नैमित्तिक कृत्य (तत्कर्महरितोषंयत्साविद्यातन्मतिर्यया ' रचनाकाल सन् १८७२। पहली बार सन् १८७२ में ही बनारस लाइट प्रेस में छपी।- सं. भूमिका मेरे प्यारे मित्र- यद्यपि तुम्हारे प्रेम मार्ग मे यावत् कर्ममात्र निष्फल हैं तथापि तुम्हारे मिलने के साधन रूप कर्म तो कर्तव्य ही हैं, इसी आशय से यह विधि लिखी गई है। इसको देखकर कई पंडित रुष्ट होंगे पर यह तो समझें कि पंडितों के हेतु तो संस्कृत पुस्तकें बनी ही है, यह तो केवल उन्हीं के आनंदार्थ है जो श्रद्धावान हैं परंतु संस्कृत ग्रंथों को नहीं देखते। इसमें श्री रामार्चन चंद्रिका, निर्णय सिंधु, धर्म-सिंधु, जयसिंह-कल्पद्रुम, भगवद्भक्तिविलास और कार्तिक-महात्म्यादिक ग्रंथों का सारांश लिखा है। जो हो, तुम इससे प्रसन्न हो, यही इसका फल है। अतएव प्यारे! यह तुम्हारे चरणों में समर्पित है अंगीकार करो। तुम्हारा रसिक हरिश्चंद्र कार्तिक नैमित्तिक कृत्य

  • श्री राधादामोदरायनम:*

दोहा जेहि लहि फिर कछु लहन की आस न चित में होय । जयति पवित्री जग प्रम-बरन यह करन दोय ।। १ ।। छप्पय जदपि पान करि परम अमृतमय प्रेम भरयौ रस । जड़ उनमत्त समान होइ बिचरत गत कलमस ।। सकल कर्म को जाल सिथिल किय परम प्रीति सों। रह्यौ न कछु कर्तव्य शेष कुल वेद रीति सों ।। पै जानि भागवत धर्म एहि सुझत सो पथ जेहि लहत । भारतेन्दु समग्न ५०४