पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८५९

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कार्तिक- कर्म - विधि बाबू शिवनन्दन सहाय इसका रचना काल सन् १८६८ मानते है । सन् १८७२ में छपी कार्तिक नैमित्तिक कृत्य के पहले पृष्ठ पर इसका उल्लेख है। निश्चय ही यह इसके पहले की रचना होगी।- सं. श्री राधाकृष्णाय नमः श्री राधादामोदराय नमः कार्तिक-कर्म-विधि जै जै श्री नंदनंद श्रीराधारसबस रसिक । दामोदर ब्रजचंद गोपीनाथ अनाथगति ।। १ ।। रासरसिक राधारमण मनमोहन घनश्याम । कोटि कोटि मनमथ मथन सुंदर सब सुखधाम ।।२।। बदौं कातिक मास दामोदर प्रिय पुण्यप्रद । नासत यम की त्रास हिय हुलास कर अतिसुखद ।। ३ ।। श्लोक: श्री कृष्णं करुणाकरं कविवरं कान्तापति कामद गपीनां नयनोत्सवं गुणनिधिं गो-गोपवृन्दप्रियं । राधाराधितविग्रह रतिरतं रामानुज रासगं मानायं मथुराधिपं मनहरं मान्यं मनोज्ञं भजे ।। १ ।। इस संसार में जन्म लेके मनुष्यों को भगवत्स्मरण और स्नान-दानादिक करना यही मुख्य धर्म है, क्योंकि बड़े बड़े पर्वो में स्नान-पूजा-व्रत-दानादिक करने से पाप नाश होते हैं और मुक्ति मिलती है और पर्व और व्रत इत्यादि तो अनेक है और नित्य ही स्नानादिक का बड़ा फल है परंतु मार्गशीर्ष, कार्तिक, माघ, वैशाख सब महीनों में उत्तम गिने जाते हैं तिसमें भी कार्तिक-स्नान का फल विशेष है । यह बात सब शास्त्र में प्रसिद्ध है कि कार्तिक के महीने में काशी में पंचगंगा-स्नान का बड़ा पुण्य है। यथा काशीखंडे कार्तिकेमासि मे याना यैः कृता भक्तितत्परैः । बिंदुतीर्थे कृतं स्नानं तेषाम्मुक्तिन दूरतः ।। १ ।। शतं समास्तपस्तप्तवा कृते यत्प्राप्यते फलं । तत्कार्तिके. पंचनदे सकृत्स्नानेन लभ्यते ।।२।। कार्तिके बिंदुतीर्थे यो ब्रहमचर्यपरायणः । स्नानमोदिते मानौ भानुजातस्य भी कुतः ।। ३ ।। कार्तिक कर्म विधि ८१५