पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८६५

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लेना, जिस में दुष्ट मुख दर्शन का दोष नाश हो जाय । फिर यह मंत्र पढ़ के पृथ्वी पर पैर रखना समुद्रमेखले देवि पर्वतस्तनमंडिते । विष्णुपनि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व में ।। ५३ ।। फिर मंदिर में जाकर के श्रीभगवान को दंडवत करना । फिर नगर के बाहर शौच करके पवित्र होना । नदी के, तालाब के वा कोई जलाशय के किनारे मल त्याग नहीं करना, इसका महादोष है; और भी अन्न के खेतखलिहान में, देवालय में राजमार्ग में मलत्याग नहीं करना, इस का माघ-माहात्म्य में बड़ा पाप लिखा है और जहाँ मल त्याग करना वहाँ तृण बिछाय के और मुख के आगे वस्त्र को आड़ करके सूर्य और चंद्रमा की ओर मुख फेर करके मल त्याग करना । ऐसे मल त्याग करके फिर मृत्तिकास्पर्श करके पवित्र होना, जिसकी विधि सब स्मृतियों और पुराणों में लिखी है । "एका लिंगे गुदे पंच इत्यादि ।" यह वाक्य पृथक् पृथक् पुस्तकों में अनेक चाल से मिलता है और गिनती में परस्पर विरोध पड़ता है, परंतु यहाँ हम वही वाक्य लिखते हैं जो सनत्कुमारसंहिता के कार्तिक-माहात्म्य में है, क्योंकि यहाँ प्रसंग कार्तिक का है। यथा, एकालिंगे गुदे सप्त दश वामकरे तथा । उभयोः सप्त दातव्याः पादयोर्मृत्तिकाद्वयम् ।। ५४ ।। लिंग में एक, गुदा में सात, बायें हाथ में दश, फिर दोनों हाथ में सात, पैर में दो दो बेर मिट्टी लगा के धोना । ब्रह्मचारी को इसकी दूनी, वानप्रस्थ को तिगुनी और यति को चौगुनी यह क्रम है। फिर अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे । मृत्तिके हर में पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम् ।। ५५ ।। इस मंत्र से शुद्ध मृत्तिका से हाथ पैर धो के फिर दतुवन करना । यथा गार्याम् कंटकी क्षीर कार्पास निगुंडीब्रहमवृक्षिका । वटै रंड विगंधाढ्यान्न कुर्यादन्तधावनम् ।। ५६ ।। बबूल, बैर, कपास, निगुंडी, पलाश, बड़, रेंड़, दुर्गंध के वृक्ष इसकी लकड़ी से दतुवन नहीं करना तथा दतुवन करने के समय यह मंत्र पढ़ना । तत्रैव आयुर्बलं यशो वर्च: प्रजाः पशु वसूनि च । ब्रह्मप्रज्ञां च मेधां च त्वन्नो देहि वनस्पते ।। ५७ ।। फिर कुल्ला करना । उपवास, नवमी, छठ, श्राद्ध के दिन, अमावस, आदित्यवार, इतने दिन दतुबन नहीं करना । मिट्टी वा और किसी वस्तु से मुख शुद्ध कर लेना और बारह कुल्ला करने से मुख की शुद्धि हो जाती है । फिर श्री गंगा स्नान करने जाना । उस समय चित्त एकाग्र करके जाना, मुख में भगवान का यश गावते जाना । लोग श्री गंगा स्नान करने जाते हैं उनको पैर पैर पर अश्वमेध और वाजपेययज्ञ का फल होता है । यदुक्तं श्रीमद्भागवते पंचमस्कन्धे यस्यां स्नानार्थ चागच्छतःपुंसःपदेपदेशश्वमेघराजसूय फलंदुर्लभमिति ।। ५८ ।। ऐसे श्रीगंगा जी के स्नान को मन अति शुद्ध करके जाना, सो जाय के पहले श्री गंगा जी के तट पर दीपदान करना और भी देवालय तुलसीवृक्ष के निकट दीपदान करना । यथा सनत्कुमारसंहितायां कार्तिकमाहात्म्ये देवालये नदीतीरे राजमार्गे विशेषतः । निद्रास्थाने दीपदाता तस्य श्रीः सर्वतोमुखी ।। ५९ ।। फिर श्रीगंगा जी के निकट आय के बाल झाड़ना । प्रमाण स्मृति में- अशोधितेषु केशेषु स्नानं यः कुरुते नरः । सम्यक् पुण्यं न लभते तस्मात्केशांश्च शोधयेत् ।। ६० ।। फिर संकल्प करे "कार्तिकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुक वासरे अमुकगोत्रोत्पन्नो अमुकशम्महि

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.H4 कार्तिक कर्म विधि ८२१