पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८७३

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सर्वदेवमयी धात्री वासुदेवमनःप्रिया । आरोपणीया सेव्या च पूजनीया सदा बुधैः ।। १४६ ।। धात्रीफलबिलिप्तांगो धात्राफलविभूषितः । धात्रीफलकृताहारो नरो नारायणो भवेत् ।। १४७ ।। धात्रीछायां समाश्रित्य कुर्याच्छादन्तयो मुने । मुक्ति प्रयान्ति पितरः प्रसादात्तस्य वै हरेः ।। १४८ ।। कार्तिकमासि विप्रेन्द्र धात्रीवृक्षोपशोभिते । वने दामोदरं विष्णुचित्रान्नस्तोषयेद्विभुम् ।। १४९ ।। श्रीवासुदेव के मन की प्यारी सब देव मयी धात्री पंडित लोगों को सदा लगाना चाहिये, सेवा करना चाहिये और पूजना चाहिये । आँवला विसने देह में लगाया है वा उस की माला पहिनते हैं वा जो लोग आँवला का फल खाते हैं वे मनुष्य नारायण होते हैं । आँवले की छाया में जो श्राद करता है भगवान की कृपा से उस के पितर स्वर्ग में जाते हैं। कार्तिक के महीने में आंवले के बगीचे में भगवान दामोदर की चित्रान्न से पूजा करना इत्यादि बहुत माहात्म्य लिखा है । इससे नित्य आँवला का पूजन करना तथा आँवला के नीचे ब्राह्मण भोजन कराना । इस भाँति आँवला की पूजा करके फेर श्री मदभागवत इत्यादिक भगवान की कथा सुनना और यथाशक्ति दान करके ब्राहमण भोजन कराना । यथा सनत्कुमारसंहितायां कार्तिकमाहात्म्ये नृत्यगानादिकार्येषु प्रहरं दिवस नयेत । तत. पुराणश्रवणं यामाद सम्यगाचरेत् ।। १५० ।। सम्पूर्ण कार्तिक यस्तु संपूज्यामलकीशुभां । राधादामोदरप्रीत्यै भोजयेच्चैव दम्पतीन् ।। १५१ ।। पश्चातस्वयं सुभुंजीत न श्रीस्तस्य क्षयं व्रजेत । कृत्वामाध्यान्हिकंकम्भभुंजीतद्विदलोन्झितम् ।। १५२ ।। ब्रहमांशकसमुदभूते पलाशे यस्तु भोजनं । कुर्यातकार्तिकमासेसौ विष्णुलोकंप्रथास्यति ।। १५३ ।। प्रहर दिन चढ़े तक भगवान के मंदिर में नाचना गाना, फिर आधे पहर कथा सुनना, फिर आंवला के नीचे दंपती ब्राहमण भोजन कराय के मध्यान्ह संध्या करके ऊपर जिन वस्तुओं का निषेध लिखा है उन्हें छोड़ के महा प्रसादी अन्न भोजन करना । जो कार्तिक में नित्य ऐसा करते हैं उन्हें लक्ष्मी त्याग नहीं करती । ब्रहमा के अंश से उत्पन्न भया है ऐसे पलाश के पते में जो भोजन करते हैं वे लोग विष्णुलाक पाते है । इस भाँति दिन का कर्म लिख के अब सध्या का कर्म लिखते हैं । रात्रिकर्म में तीन कर्म मुख्य है, एक ना आकाश दीपदान. दसरा भगवन्मन्दिर वा श्री गंगा जी वा तुलसी के निकट दीपदान. तीसरा नामसकीनन । अब तीनों का फल और विधि लिखते हैं। यथा ब्रहमांडे विष्णुवेश्मनियोदद्यात्तुलायां नभदीपकं । अग्निष्टोमसहस्रस्य फलमाप्नोति मानवः ।। १५४ ।। तथा निर्णयामृने निर्णयसिन्धौ च पुष्करपुराणे तुलायान्तिलतैलेन सायंकाले समागते । आकाशदीप योदद्यान्मासमेकं हरि प्रति ।। १५५ ।। महती नियमाप्नोति रूपसौभाग्यसम्पदाम । जो भगवन्मदिर में आकाशदीप देते हैं उन्हें हजार अग्निष्टोम (यज्ञ) का फल होता है । कार्तिक के महीने भर जो लोग श्रीकृष्ण के प्रति संध्या को आकाशदीप देते हैं वे लोग बड़ी लक्ष्मी और बहुत संपदा और रूप सौभाग्य पाते हैं। तथा हेमाद्रौ आदिपुराणे 0 fot कार्तिक कर्म विधि ८२९