पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८७५

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Yetu प्रवणः व्यतीपाते विष्णोश्चक्रावतारिणः ! दीपदान प्रकर्त्तव्यं सळसौख्याविवृदये ।। १६६ ।। कार्तिक सुदी सप्तमी मंगलवार श्रवण नक्षत्र व्यतीपात के दिन विष्णुचत्र के अवतार को दीपदान करना, इससे सब सौख्य बढ़ते हैं । इस प्रकार से दीपदान करके पहर रात तक भगवान का गुण गान करना । जहाँ भक्त लोग कीर्तन करते हैं वहाँ श्री भगवान आप निवास करते हैं। यथा पादमे कार्तिकमाहात्म्ये नाहं बसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च । मदभक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ।। १६७ ।। नारद जी से आप आज्ञा करते हैं कि नारद हम न तो वैकुंठ में रहते हैं और न जो ियो के में रहते हैं, जहाँ हमारे भक्त गाते हैं हम वहीं बैठते हैं। यह जो ऊपर लिख आए हैं ये कार्तिक के नित्य कर्म हैं। और भी कार्तिक की एकादशी से लेकर के पुनवासी तक के पाँच दिन को भीष्मपंचक कहते हैं इस में इस मंत्र से भीष्मतर्पण करना । वैयाघ्रपदगोत्राय जलं वीराय सत्यवताय शुचये गांगेयाय महात्मने । भीष्मायतबदाम्यघ्य आबालब्रह्मचारिणे ।। १६८ ।। इस प्रकार पांच दिन भीष्मपंचक में तर्पण और स्नान करना । कार्तिक में गर्गसंहिता सुनने का बड़ा माहात्म्य है । यथा यःकार्तिकेमासि नृपश्रियायुतो शृणोतिशश्वन्सुनिगर्गसंहिताम् । स चक्रवर्ती भविता न संशयो नरेन्द्रहस्तोवृतपादपादुक: ।। १६९ ।। मनोजवैः सिन्धुतुरंगमैनवैदिपैश्च विन्ध्याचलसम्भवैः परः । वैतालिकोद्गीतयशा महीतले निषेवितो वारवधूजनैस्मह ।। १७० ।। हे लक्ष्मीसंयुक्त नृप. जो कार्तिक में गर्गमुनि की संहिता विधिपूर्वक सुनै तो वह ऐसा चक्रवर्ती होय कि राजा लोग उसकी खड़ाऊँ उठावें । हवा के वेग ऐसे सिंधी नए घोड़ों से और ऊँचे और विध्याचल की तराई के हाथियों से और पृथ्वी के वैतालिकों के गीत रूसी अपने यश से और वारांगनाओं से सदा सेवित रहै । इस प्रकार कार्तिक का नित्य कर्म करके पूर्णिमा को यह व्रत समाप्त करै, यथाशक्ति दान दे, ब्राहमणों का जोड़ा भोजन वर्मणे । करावें। लोकानाम्पापरूपप्रबलतमतमोनाशनायाशु शक्त । हन्तुन्तीक्ष्णन्त्रितापम्पटुतरमनिशं यः परन्दुःखहेतुः ।। दातुं शक्तं त्रिलोकैरसुलभममृतंकार्तिकंकर्मवैध । राकाज्योत्स्नास्वरूपम्बिलसतु जगति श्रीहरिश्चन्द्रचन्द्रात् ।। दोहा जै जै श्रीबल्लभ सदा, श्री बिट्ठल द्विजराज । कृपा करत सब भय हरत, तारत पतित-समाज ।। १ ।। नमो नमो कविमुकुटमणि, पितुपदकमल पुनीत । जाकी कृपा अपार तें, समुझि परी यह रीत ।। २ ।। जानि परम उपकार पुनि, देखि शास्त्र को पंथ । जगहित श्रीहरिचंद किय, कार्तिक बिधि को ग्रंथ ।। ३ ।। ।। इति ।। la कार्तिक कर्म विधि ८३१