पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८८

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Host अब प्रान चले चहैं तासो करें होनी अनहोनी कीनी सब ही तिहारे हेतु 'हरीचंद' की सो बिनती सुनि लीजिये । तऊ प्रान-प्यारे भेट तुम सों भई नहीं । भरि नैन हमैं इक बेरह तो अपुनो एक बेर नैन भरि देखें जाहि मोहे तोन मुख मोहन जोहन दीजिये ।७६ माच्यौ ब्रज गाँव ठाँव ठाँव मैं कहर है। लाई केलि-मंदिर तमासा को बताइ छल |संग लगी डोलें कोऊ घर ही कराह परी बाला ससि सूर के कला 4 किये दावा सी । छुट्यो खान-पान रैन चैन बन घर है। धाइ ताहि गहन चहत 'हरिचंद जू' के 'हरिचंद' जहाँ सुनो तहाँ चर्चा है यही चूमि रही घर में चहूँघा करि कावा सी । इक प्रेम-डोर नाथ्यो सगरो शहर है। धोखा दे के अंकम भरत अकुलानी अति | यामें संदेह कछू दैया हौं पुकारे कहीं चंचल चखन सों लखानी मृग छावा सी । मैया की सौं मैया री कन्हैया जादूगर है ।८२ आहि करि सिसक सकोरि तन मोहि पिये | जौन गली कढ़े तहाँ मोहे नर-नारी सब कर ते छटकि छूटी छलकि छलावा सी ७७ भीरन के मारे बंद होइ जात राह है। तू रंगी रंग पिया के सखी कछु जकी सी थकी सी सबै इत उत ठाढ़ी रहै बात न तेरी लखाई परी है। घायल सी घूमें केती किए हिए चाह हैं। जद्यपि हों नित पास रहौं तऊ 'हरीचंद' जासों जोई कहे तौन सोई करै मेरी यहै मति सोच भरी है। बरबस तजे सब पतिब्रत राह है। जानी अहो 'हरिचंद' अब यह यामैं न संदेह कछ्र सहजहि मोहै मन प्रीत प्रतीत तिहारी खरी है। साँवरो सलोना जाने टोना खामखाह है ।८३ श्याम बसे उर मैं नित ताही सों सुखद समीर रूखी हवे के चलन लागी पीतह कंचुकी होत हरी है ।७८ घटि चली रैन कछु सिसिर हिमत की । जाहु जू जाहु जू दूर हटो सो बकै फूले लागे फूल फेरि बौर बन आम लागे बिन बात ही को अब यासों। कोकिले कुहूकै लागी माती मदमत की । वा छलिया ने बनाय कै खासो 'हरीचंद' काम की दुहाई सौ फिरन लागी पठायो है याहि न जाने कहा सों । आधै लागी छन छन सुधि प्यारे कंत की । काहि करै उपदेस खरो 'हरिचंद' जानी परै आयु बिरहीन की सिरानी अब कहै कित जाइ कै तासों । आयो चहें रातें फेर दुखद बसंत की ।८४ सो बनि पंडित ज्ञान सिखावत कूबरीह नहिं ऊबरी जासों १७९/ अन बन आग सी लगाइ कै पलास फूले सिसुताई अजों न गई तन ते तऊ सरसों गुलाब गुललाला कचनारो हाय । आइ गयो सिर पे चढ़ाय मैन बान निज जोबन-जोति बटौरे लगी । सुनि कै चरचा 'हरिचंद' की कान बिरहिन दौरि दौरि प्रानन सम्हारो हाय । 'हरीचंद' कोइलैं कुहूकि फिर बन बन कछक दे भौंह मरोरै लगी। बाजै लाग्यौ जग फेरि काम को नगारो हाय । बचि सासु जेठानिन सो पिय तें दुरि दूर प्रान-प्यारो काको लीजिये सम्हारो अब बूंघट में दग जोरै लगी। आयो फेरि सिर पे बसंत बजमारो हाय ।८५ दुलही उलही सब अंगन ते दिन दै तें पियूष निचोरै लगी 100 रूप दिखाई के मोल लियो मन बाल-गुड़ी बहु रंगन जोरी । इत उत जग में दिवानी सी फिरत रही चाहत-माँझो दियो 'हरीचंद' जू कौन बदनामी जौन सिर पै लई नहीं । त्रास गुरू लोगन की आस के अनेक सही लै अपने गुन की रस डोरी । फेरि के नैन परे तन पै कब बहु भाँतिन के ताप सो तई नहीं । 'हरिचंद' गिरि बन कुंज जहाँ जहाँ सुन्यौ बदनामी की तापै लगाइ पुंछोरी । प्रीति की चंग उमंग चाय के तहाँ तहाँ कब उठि धाइ के गई नहीं । सो हरि हाय बढ़ाय के तोरी ८६ मारतेन्दु समग्र ४८